सोमवार, 31 दिसंबर 2012

नव वर्ष में नवीनता क्या ?


इस समय पूरे देश में 2013 आने के उत्सव मनाये जा रहे हैं और इन उत्सवों का स्वरूप भी 'विशुद्ध आधुनिक' है दूसरी तरफ इन्टरनेट पर हिन्दुत्ववादी और राष्ट्रवादी लोग इन उत्सवों की प्रासंगिकता पर चर्चाएँ कर रहे हैं | उत्सवों का रंग बड़े नगरों में कुछ ज्यादा ही चटख है और विरोधी स्वर्रों में जोर इस बात पर है की इस नववर्ष का मूल विदेश में है  या ये किसी दुसरे धर्म के प्रवर्तक के जन्म के  आधार पर है | सभी के पास अपने तर्क हैं और मेरे पास भी हैं |

मुझे इस बात से कोई समस्या नहीं है की इस नववर्ष का मूल भारत भूमि से दूर एशिया और यूरोप की सीमा पर स्थित बेथेहलम में है | हम अभी भी उन वेद ऋचाओ के अनुसार चलते हैं जिनका कहना है की "यज्ञ अर्थात अच्छे विचार समस्त दिशाओं से हमारे पास आयें " या "ज्ञान यदि शत्रु से भी मिले तो उसे ले लेना चाहिए" परन्तु हम यह अवश्य देखना चाहेंगे की जो हमें मिल रहा है ये ज्ञान है या अज्ञान है ; और यदि ज्ञान है भी तो मंगलकारी है या नहीं लोकहितकारी है या नहीं है |

सबसे पहले बात करते है ईसाई धर्म के प्रवर्तक ईसा के जन्म दिन की ; अगर ईसा का जन्म 25 दिसंबर को हुआ था तो नववर्ष 1 जनवरी को क्यूँ ? इसके अतिरिक्त ईसा का जन्म बेथेहलम में हुआ था और उनके जन्म के समय एक गुफा में भेड़ों और गडारियों की भी कथा है | परन्तु बेथेहलमने जनवरी के इस ठन्डे मौसम में गडरिये अपनी भेड़ों को लेकर बाहर नहीं निकलते हैं , इस संबंधमे मार्च या अप्रैल वाली परंपरा अधिक उचित प्रतीत होती है | जिस प्रकार "ईसा इश्वर का पुत्र है " ये बात का 'निर्णय' ईसा की मृत्यु  के 300 वर्षों बाद पादरियों की सभा में लिया गया था उसी प्रकार इस बात का भी निर्णय लिया गया हो की ईसा का जन्म नववर्ष के अवसर पर हुआ था | एक दूसरी संभावना ये दिखती है की ईसा का जन्म हिन्दू नववर्ष के दिन हुआ हो (जो की तार्किक रूप से भी सही लगता है ) और ये बात उस समय के उस स्थान के जनमानस में बैठ गयी हो परन्तु काल-गणना सही न होने के कारन वो लोग उसे संभल न पाए हो और बाद में किसी पादरी के कुछ निर्णय कर दिए हों |

अब बात ग्रेगेरियन कैलेंडर की करी जाय | कुछ लोग कह सकते हैं की भले ही इस नववर्ष का ईसा से कोई सम्बन्ध न हो पर एक वर्ष पूर्ण होने पर उत्सव किया जाता है | परन्तु अभी तक इस "वर्ष" की सही और उचित परिभाषा भी निर्धारित नहीं की जा सकी है | यदि पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा करने को एक वर्ष माना जाय तो ग्रेगेरियन वर्ष इससे छोटा होता है और अगर 4 वर्षों में किये जाने वाले संशोधन को ध्यान में रखा जाय तो यह एक वर्ष से बड़ा हो जाता है | इसमें बहुत अधिक विसंगतियां हैं और इसकी सर्वमान्यता भी छद्म है |इसी लिए तो अक्तूबर क्रांति की वर्षगांठ नवम्बर में होती है और लन्दन में एक बार दंगे हो चुके थे क्यूँकी 3 मार्च के बाद वाले दिन को 18 मार्च घोषित कर दिया गया था |

अब परंपरा की बात कर लेते हैं ; हिन्दू नववर्ष की परंपरा कम से कम ५००० वर्ष पुरानी तो है ही इसका हमारे पास साक्ष्य है और इस नववर्ष की तो तिथि का ही निर्धारण ही उचित तरीके से नहीं हुआ है | अगर भारतीय परंपरा को छोड़ दिया जाय और यूरोप की ही बात कर ली जाय तो मार्च में नववर्ष मानाने की परंपरा कहीं अधिक पुरानी और समृद्ध है | अब बात करते हैं आधुनिकता के ध्वजवाहकों की जिनका मानना है की "ज़माने के साथ चलो" या "पुरानी बातें छोडो और नए तरीकों को अपनाओ " तो क्या किसी चीज को इस लिए ही अपनाया जा सकता है की वो नयी  है ?? एक प्रसिद्द वाक्य है की "बाजार में तकनीकी या नवीनता नहीं अपितु उपयोगिता बिकती है "  जब बाजार में "केवल नवीनता" नहीं बिक सकती है तो इस "मुर्खतापूर्ण नवीनता " को हमारे जीवन में इतना अधिक महत्वपूर्ण स्थान क्यूँ मिलाना चाहिए ??

अब इसके बाद हम बात करते हैं उन लोगों की जो कहते हैं की "अगर 1 जनवरी को 'थोड़ी सी मस्ती ' कर भी लो तो क्या फर्क पड गया ??"  या क्या हमारी सस्कृति इतनी कमजोर है की कुछ 'New Year Parties ' से ख़तम हो जायेगी ?" या सबसे 'धमाकेदार' "क्या पुरी दुनिया पागल है ?" | तो सबसे पहले तो यह की जिस प्रकार Cristianity का Crist से कोई सम्बन्ध नहीं है और "वेलेंटाइन डे के उत्सवों के स्वरुप " का संत वेलेंटाइन से कोई सम्बन्ध नहीं है उसी प्रकार इस नववर्ष में कुछ भी नवीन नहीं है |इसकी लोकप्रियता का कारन केवल बहुराष्ट्रीय कंपनियों की वह रणनीति है जिसके अनुसार "खर्च करना "ही एक मात्र जीवन शैली है और यही एक मात्र उत्सवपूर्ण जीवन शैली है , खर्च करना ही आप की महानता  की निशानी है और खर्च करना ही और की उदारता का प्रतीक है |उत्सव अर्थात खर्च करना | इन उत्सवों के स्वरूप के देखिये पूरा का पूरा ध्यान खर्च करने पर रहता है और पुरी तरह से मुर्खतापूर्ण खर्चे करने पर जो की केवल बड़ी कम्पनियों को ही लाभ पहुचती हैं | ये "केवल खर्च करना"  बड़ी कंपनियां हमारी जीवन शैली बना देना चाहती हैं जो की हमें स्वीकार है है क्यूँ की ये अमंगलकारी है | इस "थोड़ी सी मस्ती " से फर्क ये पड़ता है की आप मानसिक दासता को स्वीकार कर लेते हैं औ आप को पता भी नहीं चलता है की आप बहुराष्टीय कंपनियों प्रबंधकों के मानसिक चक्रव्यूह में फँस चुके हैं | हमारी भारतीय संस्कृति खतरे में नहीं पड सकती है क्यूँकी यह तो सत्य  पर आधारित होती है और सत्य तो "देश काल की सीमाएँ से परे" होता है परन्तु हमारी यह सत्य सनातन संस्कृति ही हमें यह कर्तव्य बोध देती है  की हम भटके हुए लोगों को सन्मार्ग दिखाएँ | हमारी संस्कृति हमें यह सिखाती है की अगर कुछ लोग मुर्ख हैं तो यह उनकी गलती नहीं है अपितु उस समाज के ज्ञानियों की गलती है की उन्होंने उन मूर्खों को ज्ञान क्यूँ नहीं दिया |

अंत में कुछ शब्द उन ज्ञानियों से जो की हमारे इस लेख से सहमत हैं और पूरी शक्ति से उन लोगों को कोसने में लगे हुए हैं जो इस "नववर्ष  उत्सव" को मानते हैं |ये हालत एक दिन में नहीं बिगड़े हैं तो एक दिन में सुधरेंगे भी नहीं | हमारे बुजुर्गों ने विकास के लोभ में जो पथ चुना था वो यहीं पर आता है | जिसे आधुनिकता का पर्याय माना गया था उसकी यही परिणिति थी | आज हम जो काट रहे है ये कम से कम 20 वर्ष पहले या शायद 60 वर्ष पहले बोया गया था | आज की फसल को कोसने या गली देने के बजे आर हम कल के लिए फसल बोयेंगे तो तो ज्यादा अच्छा रहेगा ऐसा मेरा निजी रूप से मानना है और हम इसी का प्रयास भी कर रहे हैं |

लेखक- अंकित कुमार हिन्दू 

शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

अब न्याय नहीं प्रतिशोध चाहिए



हाथों में बैनर, तख़्ती और चार्ट पेपर लिए आक्रोश के साथ बढ़ता जा रहा विकराल कारवाँ। सबके दिलों में धधकती ज्वाला और लबों पर तिलमिलाते अल्फ़ाज़ और इन अल्फ़ाज़ों में निहित प्रश्नों की एक लंबी श्रृंख्ला। आज़ाद भारत के बाद शायद यह दृश्य पहली बार देखने को मिला। मानो सम्पूर्ण देश फिर किसी जंग के लिए एकजुट हो उठ खड़ा हुआ हो। मानो किसी ने देश के ज़मीर पर चोट की हो। मानो निरंकुश सन्नाटे में किसी की चीख हृदय को चीर गई हो। यह एक ऐसा मंजर है जिसे न किसी नेतृत्व की आवश्यकता है और न किसी आह्नान की फिर भी इनके उद्देश्य निश्चित हैं और मंजिल स्पष्ट।यह जंग थी और है औरत के अधिकारों की, परन्तु इस बार इन अधिकारों की श्रेणी में आरक्षण अथवा संपत्ति का अधिकार सम्मिलित नहीं है वरन् यह माँग है सम्मान व सुरक्षा के अधिकार की। 16 दिसंबर को दिल्ली में घटित गैंगरेप की शर्मनाक घटना ने संपूर्ण देश की आत्मा को झकझोर दिया। दरिंदगी की समस्त सीमाओं के परे इस गैंगरेप ने महिलाओं की सुरक्षा एवं उनके सम्मान के प्रति सरकार, न्याय व्यवस्था एवं पुरूष समाज के विचारों पर कई प्रश्न चिह्न आरोपित कर दिये। राजधानी दिल्ली में अगर महिलाओं की सुरक्षा के दावे ठोकने वाली व्यवस्था पर अपराधी इस कदर तमाचा मार रहे तो अन्य राज्यों से क्या अपेक्षा की जाए! ए. सी. ऑफिस में विराजमान आलाकमान कितने गंभीर हैं सड़क की वास्तविकता के प्रति? क्या व्यवस्था परिवर्तन बलिदान के बिना अपेक्षित नहीं है? क्या इसके लिए किसी न किसी की बलि दी जानी इतनी आवश्यक है? और इस बलि के पश्चात् संवेदनशीलता के प्रमाण एवं न्याय प्राप्ति की क्या गारंटी है?
शायद कुछ भी नहीं। निष्ठुर व्यवस्था से किसी भी संवेदना अथवा दया की आशा करना मूर्खता है। यह शिकायत मात्र व्यवस्था से ही नही है। हमारा समाज भी अभी तक इसी संकीर्ण मानसिकता के अधीन जीवन यापन कर रहा है। जहाँ एक ओर भ्रूण हत्या, दहेज-हत्या, ऑनर किलिंग जैसे अपराध मानव जाति को शर्मसार कर रहे है वहीं दूसरी ओर बलात्कार जैसे निर्मम कुकृत्य पशु जाति को गौरवान्वित कर रहे हैं कि वे मानव नहीं है। इस घटना के प्रति उद्वेलित जनाक्रोश प्रथम दृष्टया सिद्ध करता है कि इंसानियत जीवित है। समाज संवेदनहीनता का समर्थक नही है और हम एक जीवित समाज में विचरण कर रहे है। परन्तु यह भ्रम टूटते अधिक समय नहीं लगा। जब सारा देश इस द्रवित कर देने वाली घटना से उबल रहा है उस समय भी कुछ या कहे बहुत से ऐसे निर्लज उदाहरण समाज में व्याप्त हैं जो इस प्रकार की शर्मनाक घटनाओं के लिए महिलाओं को ही दोषी ठहरा स्वयं को दोषियों के पक्षधर सिद्ध कर रहे हैं। फेसबुक पर एक ऐसे ही प्रोफाइल की सोच ने यह विचारने पर बाधित कर दिया कि इस देशव्यापी प्रदर्शन के मूल मे कितनी ईमानदारी, सच्चाई, मानवीय मूल्य या संवेदनशीलता निहित हैं? कहीं यह सब भेड चाल तो नहीं? या मात्र एक दिखावा? या कहे कि ऐसे प्रदर्शनों में टीवी चैनलों व समाचार-पत्रों में अपनी तस्वीर देखने का माध्यम? फेसबुक के उस प्रोफाइल ने एक बात तो पूर्णतः स्पष्ट कर दी कि घटना भले ही कितनी भी जघन्य हो जाए परन्तु वह राक्षस प्रवृत्ति को परिवर्तित या शर्मसार नहीं कर सकती। जहाँ बलात्कार पीड़िता की दर्दनाक सच्चाई आँसू लाने के लिए पर्याप्त हैं, वहीं कुछ लोगों की सोच यह भी है कि अगर शेर (पुरूष) की गुफा में बकरियाँ (महिलाएँ) जाकर नाचेंगी तो यही होगा। कितना घिनौना एवं घटिया वक्तव्य है यह! प्रश्न यह है कि ऐसे कृत्यों को अंजाम देने वालों को क्या कहा जाए- शेर या कुत्ता? और क्या महिलाएँ बकरियाँ अर्थात् जानवर हैं? क्या यह विचारधारा शिक्षित समाज के अशिक्षित मस्तिष्क की नहीं है? इस वक्तव्य से एक बात तो सिद्ध हो जाती है कि पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं से सम्मान की अपेक्षा तो दूर की बात है इंसानियत की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। जब उनके लिए महिला का वजूद जानवर तुल्य है तो भला एक जानवर सम्मान का हकदार कैसे हो सकता है? वह तो दुत्कार के भाग्य का स्वामी है। परन्तु दयनीय स्थिति यह है कि जानवर को भी दिन में एक बार प्रेमपूर्वक पुचकार दिया जाता है और बलात्कार जैसे जघन्य कृत्यों से भी वह सुरक्षित है परन्तु दुर्भाग्यशाली महिला जाति इस स्तर पर भी हार जाती है। यह किसी एक व्यक्ति के विचार नहीं है। इस प्रकार के न जाने कितने विचार हमारे आसपास हमें मानव होने पर शर्मसार कर रहे हैं।                                                 
शर्मिंदा करने वाले शब्दों का अकाल सा पड़ जाता है जब दिल्ली में हुई इस दर्दनाक बलात्कार की घटना के दो दिन बाद के एक समाचार-पत्र के एक पृष्ठ पर एक राज्य के एक ही क्षेत्र में बलात्कार की नौ घटनाएँ पढ़ने के लिए मिलती हैं। राष्ट्रीय शर्म का विषय है कि एक बेटी के लिए तो न्याय की गुहार अभी न्यायव्यवस्था को जगा भी न सकी थी कि कई और बेटियाँ अपनी सिसकियों में ही दम तोड़ गई। ज़रा सोचिए देशव्यापी आंदोलन की चीखें तो इस राक्षस प्रवृत्ति को व्यत्थित कर न सकी और जब देश शान्त भाव से अपने-अपने घरों में सपने बुन रहा होता है तब इन प्रवृत्ति की तिलमिलाहट किस सीमा तक क्रूर होती होगी? इसके प्रमाण दिल्ली की उस पीड़िता के देह पर प्रदर्शित हो रहे हैं? तो क्या यह आंदोलन क्षणभंगुर है या तत्कालिक परिस्थितियों का दिखावा? यह जनसैलाब शायद न्याय व्यवस्था के कुछ पृष्ठ तो परिवर्तित कर दे परन्तु समाज में व्याप्त उस सोच को कैसे परिवर्तित किया जाए जो इन अशोभनीय घटनाओं की जननी है?
क्या कोई अंत है इन सबका? कैसे लगेगा अंकुश इन सब पर? कैसे सुरक्षित अनुभव करें माँ-बेटी-बहन स्वयं को? क्या कभी ऐसा देश भारत देश हो सकेगा जब महिलाएँ अपने श्वास की ध्वनि से इसलिए न घबराए कि अगर किसी पुरूष ने उस ध्वनि को स्पर्श किया तो वह अपना वजूद खो देंगी? क्या कभी माता-पिता बेटी के जन्म पर निर्भय हो खुशियाँ मना सकेंगे? क्या कभी इस देश के महिलाएँ गर्व से कह सकेंगी कि हम उस देश की बेटियाँ हैं जहाँ हमें न केवल देवी के रूप में पूजा जाता है वरन् वास्तव में उस पूजा की सार्थकता प्रासंगिक है? क्या यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि ऐसी घटनाओं से फिर कभी यह देश लज्जित नहीं होगा?
ऐसी घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए किसी भी देश की कानून व्यवस्था का सख्त होना अति आवश्यक है। बलात्कार और ऐसी ही क्रूरता से लिप्त एसिड केस, ऐसी घटनाएँ हत्या से भी कहीं अधिक संगीन अपराध है। हत्या व्यक्ति को एक बार मारती है परन्तु ये घटनाएँ न केवल भुक्तभोगी को वरन् उससे सम्बन्धित प्रत्येक रिश्ते को हर पल मारती हैं और जीवन भर मारती हैं। प्रत्येक क्षण होती इस जीवित-मृत्यु की सजा मात्र सात वर्ष पर्याप्त नहीं है। देखा जाए तो मृत्युदंड भी इस अपराध के सम्मुख तुच्छ प्रतीत होता है। कई ऐसे देश हैं जहाँ इस प्रकार की घटनाओं की सजा स्वरूप अपराधी को नपुंसक बना दिया जाता है। शायद यह सजा उसे उसके अपराध का अहसास तो दिला सके परन्तु अगर भुक्तभोगी की सिसकियों से पूछा जाए तो वह कभी इस सजा को उस खौफ के लिए पर्याप्त नहीं मानेगी जो उसके मन में घर कर जाता है। उस अविश्वास को इस सजा से कभी नहीं पुनः प्राप्त कर सकेगी जो समाज के प्रति उसके मस्तिष्क में समा जाता है। उस दर्द की भरपाई यह सजा कभी नहीं कर पाएगी जो उसके कोमल अंगों को मिला है। और इस सजा की तसल्ली उसके आत्मविश्वास के लिए कभी पर्याप्त नहीं हो पाएगी। इस प्रकार के अपराध पर अंकुश लगाने के लिए सिर्फ तालिबानी तरीके ही कारगार साबित हो सकते हैं। ऐसे अपराधियों को ज़मीन में आधा दबाकर पत्थरों से मारा जाना चाहिए जिससे प्रत्येक पत्थर इस प्रकार की मंशा रखने वालों तक की रूह को कँपा सके। जिससे कोई भी दुष्ट विचार उत्पन्न होने से पहले ही अपने अंजाम को सोचने पर मजबूर हो सके।
सच पूछिए तो महिलाओं को संविधान में लिखित अधिकारों में संपत्ति के अधिकार देने से पूर्व सम्मान का अधिकार दिया जाना चाहिए। उन्हें सुरक्षा के अधिकार की आवश्यकता है। खुली हवा में स्वतंत्रतापूर्वक निर्भिक हो मुस्कराने के अधिकार की आवश्यकता है। अगर ये अधिकार उन्हें प्राप्त हो जाए तो असमानता स्वतः समाप्त हो जाएगी। लैंगिक असमानता का प्रश्न अस्तित्वहीन हो जाएगा। इसके लिए आवश्यकता है मानसिक स्तर की परिधि को विस्तृत करने की। संकीर्णता को समाप्त कर स्वतंत्र सोच के विकास की। अकेली महिला को देखकर जो आकर्षण पुरूष महसूस करते हैं उसके पल्लवित होने से पूर्व उस महिला के स्थान पर अपने घर की महिला को रखकर विचार करें। क्या आप अपने परिजनों के साथ किसी प्रकार का अशुभ होने की कल्पना करना चाहेंगे? यदि नहीं, तो त्याग दीजिए प्रत्येक उस विचार को जो दूसरों के घर की बेटियों के प्रति उमड़ता है। वैचारिक शुद्धता एवं पवित्रता ही इस समस्या का समाधान हो सकती है। ऐसे में परिवार की जिम्मेदारी है कि वे बच्चों में अच्छे संस्कार और अच्छी संस्कृति का विकास करे। उन्हें प्रत्येक जाति (स्त्री व पुरूष) का सम्मान करने की शिक्षा दें। नैतिक मूल्यों का हृास किसी भी समाज के अंत का संकेत है और वर्तमान परिस्थितियाँ भारत के संदर्भ में वास्तव में चिन्तनीय हैं।
लेखिका : नीरजा तोमर 




बुधवार, 26 दिसंबर 2012

वेद: महान आविष्कारों के स्त्रोत (Great Inventions of Vedic India)-2



India is the cradle of the human race, the birthplace of human speech, the mother of history, the grandmother of legend and the great grand mother of tradition.
-Mark Twain
भारतभूमिमानव प्रजाति की पालनकर्ता है, मानवीय वाणी की जन्मस्थली है, इतिहास की माता है, दिव्य-गाथाओं की दादी है और परमपराओं की पर-दादी है।
-मार्क ट्वेन

समय की गणना के लिए प्राचीन भारतीयों ने दुनिया को समय की सबसे छोटी इकाई से लेकर सबसे बड़ी इकाई प्रदान की:



UnitEquivalentEquivalent
Krati34,000th of a second
1 Truti300th of a second
2 Truti1 Luv
2 Luv1 Kshana
30 Kshana1 Vipal
60 Vipal1 Pal
60 Pal1 Ghadi24 minutes
2.5 Gadhi1 Hora1 Hour
24 Hora1 Divas1 Day
7 Divas1 Saptaah1 Week
4 Saptaah1 Maas1 Month
2 Maas1 Rutu (season)
6 Rutu1 Varsh1 Year
100 Varsh1 Shataabda1 Century
10 Shataabda1 Sahasraabda10 Centuries or 1000 Years
432 Sahasraabda1 Yuga4320 Centuries or 432000 Years
10 Yuga1 Mahayuga43200 Centuries or 4320000 Years
1000 Mahayuga1 Kalpa43200000 Centuries or 4.32 Billion Years

भारतीय काल गणनाओं में तीन chronologies आज तक प्रचलित है:
1.   कलिय्ब्दा: जो कलियुग के शुरू होने के साथ शुरू होती है, यानी 5107 वर्ष पुरानी।
2.   कल्पब्दा: जो वर्तमान कल्प "श्वेतवर कल्प" के शुरुआत के साथ शुरू होती है यानी 1,971,221,107 वर्ष पुरानी।
3.   सृश्ब्द: जो ब्रह्माण्ड के निर्माण के साथ शुरू होती है यानी 155,521,971,221,107 वर्ष पुरानी।
अभी बहुत सी ऐसी काल-गणना प्रणालियाँ हैं जो इसाई क्रोनोलोज़ी से बहुत पुरानी हैं:

ChronologyAntiquity in years
Roman2,753
Greek3,576
Turkish (new)4,294
Chinese (new)4,360
Hindu (Kalyabda)5,106
Jewish5,764
Iran (new)6,008
Turkish (old)7,610
Egyptian28,667
Iran (old)189,971
Chinese (old)96,002,301
Hindu (Kalpābda)1,971,221,106
Hindu (Sŗşābda)155,521,971,221,106

पश्चिम में Hippocrates (460 – 377 BC) को Father of Medicine कहा जाता है लेकिन उनसे पहले 500 BC में महर्षि चरक ने एक प्रसिद्ध किताब 'चरक संहिता' लिखी थी। चरक-संहिता विस्तार से 8 मुख्य चिकित्सीय नियमों का वर्णन करती है -
1.   आयुर्वेद
2.   शल्य-चिकित्सा (surgery)
3.   शालक्य-चिकित्सा (head, eye, nose, throat)
4.   काया-चिकित्सा (mental health)
5.   कौमार्यभ्रुत-चिकित्सा (pediatrics)
6.   अगाड़-चिकित्सा (toxicology)
7.   रसायन तंत्र (Pharmacology)
8.   वाजीकर्ण तंत्र (reproductive medicine)
इसके अलावा चरक ने अपनी किताब चरक-संहिता में Anatomy की जानकारी भी बहुत विस्तार से लिखी ,जिसमें ह्रदय और परिसंचरण तंत्र की कार्य-प्रणाली का विस्तृत वर्णन सम्मिलित है।
चरक को अरब और roman दोनों जगहों पे medical authority के रूप में सम्मान मिलता है।


Acharya Charak: Worlds first Physician

शल्य-चिकित्सा: 300 प्रकार की शल्य-क्रियाएं और 25 प्रकार के शल्य उपकरण (Surgery: 300 different types Operations, and 125 Surgical Instruments):

भारतीय विद्वान वो पहले लोग थे जिन्होंने विच्छेदन (amputation),सिजेरियन(cesarean surgery) और कपाल शल्य(cranial surgery) को व्यवहारिकता में लाया।
महर्षि सुश्रुत ने सर्वप्रथम 600 BC  में गाल की त्वचा का उपयोग नाक,कान ,होंठ के आकार को ठीक करने के लिए प्लास्टिक सर्जरी (plastic surgery) में किया।
उन्होंने अपने निबंध सुश्रुत-संहिता में निम्न 8 प्रकार की शल्य चिकित्सायों का वर्णन किया है:
1.आहार्य (extracting solid bodies),
2.भेद्य (excision),

3.इश्य (probing),
4.लेख्य (sarification),
5.वेध्य (puncturing),
6.विस्राव्य (extracting fluids)
7.सिवया (suturing)

सुश्रुत ने 300 से भी ज्यादा शल्य क्रियाओं जैसे extracting solid bodies, excision, incision, probing, puncturing, evacuating fluids and suturing का अविष्कार किया।
भारतीय वे पहले लोग थे जिन्होंने amputations (ख़राब अंग को ऑपरेशन से अलग करना), caesarean (ऑपरेशन से प्रसव कराना), cranall surgeries (खोपड़ी का ऑपरेशन) 42 विधियों से सफलता पूर्वक किया। उन्होंने 125 प्रकार के शल्य उपकरणों का उपयोग किया जैसे scalpels, lancets, needles, catheters आदि।
यहाँ तक कि सुश्रुत ने non-invasive surgical treatments (बिना चीर-फाड़ के ऑपरेशन) , प्रकाश किरणों और ऊष्मा की सहायता से किया।
सुश्रुत और उनकी टीम ने जटिल operatios जैसे मोतियाबिंद(cataract), कृत्रिम अंग(artificial limbs), प्रसव(cesareans), अस्थि-भंग(fractures), मूत्राशय की पथरी(urinary stones), प्लास्टिक सर्जरी (plastic surgery) और  मस्तिष्क सर्जरी(brain surgeries) भी किये।
चाणक्य के 'अर्थशास्त्र' में पोस्ट-मोरटम(Post mortems) और 'भोज-प्रबंध' में मस्तिष्क सर्जरी(brain surgeries) के बारे में लिखा है कि राजा भोज 2 surgeons ने कैसे मस्तिष्क की गाँठ का सफलता पूर्वक शल्य उपचार किया।

Acharya Sushrut: Worlds first Surgen

योग: शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य (Yoga - Health of the Body and Mind):

महर्षि पतंजलि ने योग-सूत्र में, स्वस्थ रहने के लिए शारीरिक और मानसिक व्यायाम की विपुल विधियां बतायीं।
व्यायाम से परे योग का अर्थ होता है स्व-अनुशासन।
महर्षि पतंजलि के अनुसार मानव के शरीर  में कई मार्ग(channels) होते हैं जिन्हें 'नाड़ी' कहते हैं और कई केंद्र होते हैं जिन्हें 'चक्र' कहते हैं। यदि इन पर नियंत्रण पा लिया जाये तो शरीर में छिपी ऊर्जा निखर आती है, इस उर्जा को कहते हैं 'कुंडलीनी'.
कुंडलीनी के जागरण से वो शक्तियां भी हमारे अन्दर आ जाती है जो सामान्य मनुष्य के वश के बाहर होती हैं।
Acharya Patanjali

योग के चरण:(Stages of Yoga)
1.   यम (universal moral commandments)
2.   नियम (self-purification through discipline)
3.   आसन (posture)
4.   प्राणायाम (breath-control)
5.   प्रत्याहार  (withdrawal of mind from external objects)
6.   धारणा (concentration)
7.   ध्यान  (meditation)
8.   समाधी  (state of super-consciousness)


आयुर्वेद: दीर्घायु की विज्ञान (Ayurveda - the Science of Longevity):

आयुर्वेद का शाब्दिक अर्थ होता है: आयु-LIfe , वेद -Knowledge.
अन्य उपचार पद्धतियों की तरह आयुर्वेद 'रोग के लक्षण' पर काम नहीं करता बल्कि 'रोग के कारण' को दूर करने पे काम करता है।
आयुर्वेद में अनेक प्रकार की प्राकृतिक औषधियां आती है। आयुर्वेद में सरल से लेकर जटिल रोगों के समूल इलाज के लिए असंख्य जड़ी बूटियों का वर्णन है।

Ayurved

भरतनाट्यम (Bharatanatyam):

भरतनाट्यम सबसे पुरानी नृत्य कला (the oldest of the classical dance forms of India) है।लगभग 2000 वर्ष पुरानी।
भरतनाट्यम से ही अन्य सभी प्रकार की नृत्य कलाओं का जन्म हुआ।
संगीत,अभिनय,काव्य,प्रतिमा-रूपण,साहित्य के अनुपन संयोजन वाली ये कला हजारों वर्षों से शरीर, मन और आत्मा को अभिव्यक्त करने का मंचन करती रही है।

Bharatnatyam

मार्शल आर्ट्स की माता (Mother of Martial Arts):

बोद्धिधर्मा, एक भारतीय बौद्ध भिक्षुक ने 5वीं  सदी में 'कलारी' को जापान और चीन में प्रचलित किया। उन्होंने अपनी विद्या के मंदिर में सिखाई उस मंदिर को आज Shaolin Temple कहते हैं।
चीन के लोग उन्हें पो-टी-तामा बुलाते थे।उनकी सिखाई विद्या भविष्य में कराटे, जुडो और कुंग फू  के नाम से विकसित हुयी।
Martial Art

विभिन्न ग्रंथों में जगह जगह पर बहुत सारे अस्त्र-सस्त्र का वर्णन आता है जैसे:
  • इन्द्र अस्त्र
  • आग्नेय  अस्त्र
  • वरुण  अस्त्र
  • नाग   अस्त्र
  • नाग  पाशा
  • वायु  अस्त्र
  • सूर्य  अस्त्र
  • चतुर्दिश अस्त्र
  • वज्र  अस्त्र
  • मोहिनी  अस्त्र
  • त्वाश्तर  अस्त्र
  • सम्मोहन / प्रमोहना  अस्त्र
  • पर्वता  अस्त्र
  • ब्रह्मास्त्र
  • ब्रह्मसिर्षा  अस्त्र
  • नारायणा  अस्त्र
  • वैष्णव अस्त्र
  • पाशुपत  अस्त्र
ब्रह्मास्त्र ऐसा अस्त्र है जो अचूक होता है।
ब्रह्मास्त्र के सिद्धांत को समझने के लिए हम एक Basic Weapon - चतुर्दिश अस्त्र का अध्ययन करते हैं जिसके आधार पर ही अन्य अस्त्रों का निर्माण किया जाता है।
चतुर्दिश अस्त्र:


संरचना:
१.तीर (बाण)के अग्र सिरे पे ज्वलनशील रसायन लगा होता है, और एक सूत्र के द्वारा इसका सम्बन्ध तीर के पश्च सिरे पे बंधे बारूद से होता है.
२.तीर की नोक से थोडा पीछे चार छोटे तीर लगे होते हैं उनके भी पश्च सिरे पे बारूद लगा होता है.
कार्य-प्रणाली:
१.जैसे ही तीर को धनुष से छोड़ा जाता है, वायु के साथ घर्षण के कारण,तीर के अग्र सिरे पर बंधा ज्वलनशील पदार्थ जलने लगता है.
२.उस से जुड़े सूत्र की सहायता से तीर के पश्च सिरे पे लगा बारूद जलने लगता है और इस से तीर को अत्यधिक तीव्र वेग मिल जाता है.
३.और तीसरे चरण में तीर की नोक पे लगे, 4 छोटे तीरों पे लगा बारूद भी जल उठता है और, ये चारों तीर चार अलग अलग दिशाओं में तीव्र वेग से चल पड़ते हैं.

दिशा-ज्ञान की प्राचीन जडें (Ancient root of Navigation):

navigation का अविष्कार 6000 साल पहले सिन्धु नदी के पास हो गया था। अंग्रेजी शब्द navigation, संस्कृत से बना है: navi -नवी(new); gation -गतिओं(motions).

मोक्ष्यपातं: सांप-सीढी का खेल (Mokshapat: Snake and Ladder had its origin in India):

सांप-सीढ़ी का  खेल भरत में 'मोक्ष पातं' के नाम से बच्चों को धर्म सिखाने के लिए खेलाया जाता था।
जहां सीढ़ी मोक्ष का रास्ता है और सांप पाप का रास्ता है।
इस खेल की अवधारणा 13वीं सदी में कवि संत 'ज्ञानदेव' ने दी थी।
मौलिक खेल में जिन खानों में सीढ़ी मिलती थी वो थे- 12वां खाना आस्था का था, 51वां खाना विश्वास का, 57वां खाना उदारता का, 76वां  ज्ञान का और 78वां  खाना वैराग्य का था।
और जीन खानों में सांप मिलते थे वो इस प्रकार थे- 41 वां खाना अवमानना का, 44 वां खाना अहंकार का, 49 वां खाना अश्लीलता का, 52 वां खाना चोरी का, 58 वां खाना झूठ का, 62 वां खाना शराब पीने का, 69 वां खाना उधर लेने का, 73 वां खाना हत्या का , 84 वां खाना क्रोध का, 92 वां खाना लालच का, 95 वां खाना घमंड का ,99 वां खाना वासना का हुआ करता था। 100वें  खाने में पहुचने पे मोक्ष मिल जाता था।
1892 में ये खेल अंग्रेज इंग्लैंड ले गए और सांप-सीढ़ी नाम से प्रचलित किया।

Mokshya-Patam

पांसा (Dice):

काफी पुराने पुरातात्विक प्रमाण मिले हैं जिसमें हड़प्पा की खुदाई में कई स्थानों पर (Kalibangan, Lothal, Ropar, Alamgirpur, Desalpur and surrounding territories) Oblong (लम्बे) पांसे मिले हैं। उनमें से कुछ ईसा से 3 सदी पहले के हैं। पांसों के प्रमाण ऋग्वेद और अथर्ववेद में मिलते हैं।

A die found in excavations at a Harappan period site.
Note that the six is not opposite the one
Krishna and Radha playing chaturanga
on an 8x8 Ashtāpada

शतरंज का खेल (The Game of Chess):

शतरंज के खेल का अविष्कार भारत ने किया था , इसका मौलिक नाम 'अष्ट-पदम्' था।
उसके बाद आज से 1000 साल पहले ये खेल 'चतुरंग' नाम से खेला जाने लगा और फिर 600 AD में Persians के द्वारा इसका नाम शतरंज रखा गया।
Map showing origin and diffusion of chess from India
to Asia, Africa, and Europe, and the changes
in the native names of the game in corresponding places and time

ताश का खेल (The Game of Cards):

ताश के खेल की शुरुआत भारत में हुयी थी उसका मूल नाम 'क्रीडा पत्रं' था।
पत्ते कपड़ों के बने होते थे जिन्हें गंजिफा कहा जाता था। ये एक शाही खेल था, इस मूल खेल में कई परिवर्तन होते गए और आज का 52 पत्तों वाला खेल निष्काषित हुआ।
Krida-Patram



इन महान देनों के साथ साथ वेद प्राचीन भारत की सुव्यवस्थित सभ्यता के प्रमाण भी हैं।

·         मानव पुस्तकालय में प्राचीनतम किताब ऋग्वेद (The oldest book in the library of humans is the Rigveda)

·         विश्व की सबसे पहली सभ्यता (The Worlds Oldest Living Civilization)

·         प्राचीनतम सुव्यवस्थित भाषा (Oldest Systematic Language)

·         श्रुति को UNESCO द्वारा धरोहर घोषित करना (Oral tradition of Vedic Chanting is declared an intangible heritage of humanity by UNESCO)

First Air-Craft Designed by Maharshi Bhardwaj

महर्षि भरद्वाज द्वारा विमानों का अविष्कार,वात्सायन द्वारा  कामसूत्र लेखन,कपिल मुनि द्वारा एलियन का वर्णन ऐसी अन्य बहुत सी बातें वेदों में है जिनका जिक्र कभी ख़त्म नहीं हो सकता।