शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

वीडियो-अयोध्या पर सवाल पूछने पर इमाम बुखारी ने उर्दू संपादक को पीटा


अक्सर सुनने मे आता है की यदि किसी ने मीडिया के किसी भी व्यक्ति के साथ धक्का मुक्की भी कर दी हो तो पूरा मीडिया उस व्यक्ति या संस्थान के खिलाफ एकजुट हो कर तब तक हो हल्ला मचाता है या उसका बहिष्कार करता है जब तक वो व्यक्ति या संस्थान माफी न मांग ले। 
इसके बहुतेरे उदाहरण मिल जाएंगे बाबा रामदेव ,अन्ना हज़ारे,केजरीवाल के आंदोलन मे॥ और ये होना भी चाहिए यदि मीडिया लोकतन्त्र का चौथा स्तभ है तो इसपर हमला किसी भी दशा मे स्वीकार्य नहीं होना चाहिए । 
मगर मीडिया ने क्या मानदंड तय कर के रखें है अपनी छीछालेदर कराने के जब शिवसेना या किसी हिन्दू संगठन की ओर से जरा सा भी गलती हुई तो "भगवा गुंडो का आतंक" नाम से पूरा प्रायोजित कार्यक्रम चला दिया जाता है ,ऐसा करना उनका अधिकार और कर्तव्य दोनों है ।मगर जब यही काम कोई मुसलमान या इस्लामिक संगठन करता है तो मीडिया को क्यू साँप सूंघ जाता है ॥मीडिया को  इस्लामिक संगठनो से लात खाने मे ऐसा क्या आनंद है जो हिंदुओं के लात घूसों मे नहीं???दो उदारण देता हूँ। 

1 कुछ दिन पहले  मुंबई के आजाद मैदान मे मुस्लिमो ने मीडिया की गाड़ियों को तोड़ फोड़ कर आग लगा दी,पत्रकारो  को पीटा मगर किसी भी समाचार चैनल ने इसे दिखने की हिम्मत नहीं की ॥ अगर बहुत किया तो एक खबर दिखाई की "मुंबई मे हिंसा और तनाव" और यही अगर  इस घटना मे किसी हिन्दू संगठन की संबद्धता होती तो "भगवा गुंडो का कहर" 


दूसरी घटना जल्द की है जब जामा मस्जिद के इमाम बुखारी लखनऊ दौरे पर थे ॥ दस्ताने उर्दू समाचार पत्र के संपादक ने जब बुखारी से सवाल किया की सन 1528 के खसरे में राजा दसरथ का नाम आया है।  जब राजा दशरथ का नाम आ गया तो बेटा (राम जी ) रामजन्म भूमि के हकदार हुए तो फिर मुस्लिम समुदाय को हिंदुओं को ये भूमि दे देनी चाहिए। इस प्रश्न पर बुखारी ने उस संपादक महोदय को पीटना शुरू कर दिया। मगर हर बात पर गला फाड़ने वाले राष्ट्रीय समाचार चैनलो को अभी तक साप सूंघा हुआ है ऐसा क्यू???? वीडियो देखें:


कई लोग ऐसा कहते हैं की ये समाचार चैनल मुस्लिम संगठनो और अरब देशो से मोटी दलाली खाते हैं।अतः लात जूते  खाने के बाद भी कोई प्रतिक्रिया नहीं देते। सत्य क्या है ये नहीं मालूम मगर लोकतन्त्र के चौथे स्तभ मे दलाली खाने का प्रचालन बढ़ रहा है ये सर्वविदित है और इस प्रकार की घटनाओं से इन बातों की पुष्टि होती है और ये दिखता है की तुष्टीकरण का विषाणु राजनीतिक दलो से मीडिया मे भी पहुच गया।