हिन्दू
धर्म से संबंधित विभिन्न धार्मिक कथा कहानियों में इस प्रकार के उल्लेख मिलते हैं
कि प्राचीन काल में विभिन्न देवी-देवता,यक्ष,गंधर्व,ऋषि-मुनि इत्यादि विभिन्न प्रकार के विमानों
द्वारा यात्रा भ्रमण किया करते थे। जैसे कि रामायण में पुष्पक विमान का वर्णन आता
है। महाभारत में भी श्री कृष्ण, जरासंध आदि के विमानों का
वर्णन आता है। इसी प्रकार से श्रीमहाभागवत में कर्दम ऋषि की एक कथा आती है कि
तपस्या में तल्लीनता के कारण वे अपनी पत्नी की ओर अधिक ध्यान नहीं दे पाते थे।
किन्तु कुछ समय बाद जब उन्हे इसका भान हुआ तो उन्होंने अपने विमान के द्वारा उसे
संपूर्ण विश्व का भ्रमण कराया।
देखा जाए तो इन उपरोक्त वर्णित कथाओं को जब आज का तार्किक व
प्रयोगशील व्यक्ति सुनता,पढ़ता है तो उसके मन में स्वाभाविक
रूप से ये विचार आता है कि यें सब कपोल कल्पनाएं हैं, मानव
के मनोंरंजन हेतु गढ़ी गई कहानियॉ मात्र है। ऐसा विचार आना सहज व स्वाभाविक है,
क्योंकि आज देश में इस प्रकार के कहीं कोई प्राचीन अवशेष नहीं मिलते,
जों ये सिद्ध कर सकें कि प्राचीनकाल में मनुष्य विमान निर्माण की
तकनीक से परिचित था। किन्तु यदि भारतीय ग्रन्थों
का सही तरीके से अध्ययन, मनन करें तो ये स्पष्ट हो जाता है
कि युद्ध कौशल में प्रयोग होने वाले विभिन्न प्रक्षेपात्रों, अदृ्श्य अस्त्रों-शस्त्रों आदि की उपलब्धता भारत में विज्ञान के
चर्मोत्कर्ष की ओर संकेत करती है। इसी क्रम में प्राचीन भारतीय विमान शास्त्र पर
आज ये लेख प्रस्तुत कर रहा हूँ जिससे कि आप लोगों को प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान
की एक झलकी मिल सके।
मैं यह दृ्डतापूर्वक कह सकता हूँ कि विभिन्न वैज्ञानिक निर्माण,
आविष्कार आदि जितनी भी लोकोपयोगी विद्याएं हैं---ये सभी भारत की ही
देन हैं। समुद्रतल तथा आकाशमंडल की परिधि में उडना, विभिन्न
लोकों में गमन, विशाल भवन,यान, वाहन आदि का बनाना इत्यादि सम्पूर्ण यान्त्रिक संस्कृ्ति, आविष्कारों, खोजों की आदि विकासस्थली हमारी यह
भारतभूमी ही है। व्यास,वशिष्ठ,विश्वामित्र,पाराशर, याज्ञवल्क्य, जैमिनी,
अत्रि, वत्स, नारद,
भारद्वाज, शकटायन, स्फोटायन,
प्रभूति इत्यादि मन्त्रदृ्ष्टा ऋषि ही यन्त्रों के भी आविष्कारक तथा
निर्माता रहे हैं । महर्षि अत्रि और वत्स तो अपने समय के तत्वान्वेषी वैज्ञानिक
मनीषी थे तथा सर्वप्रथम इन्ही दो मनीषियों नें चन्द्र सूर्य ग्रहण विज्ञान और
आकर्षण विज्ञान का पता लगाया था। जिसका विशद विवेचन यहाँ तो असंभव है। खेद है कि
आज अपने इस गौरवपूर्ण अध्यायों से हम अपरिचित होकर उक्त तथ्यों के आविष्कार का
श्रेय पश्चिमी जगत को देते हैं। ओर जो थोडे बहुत कुछ
बहुत लोग इन तथ्यों से परिचित हैं भी, वो भी अपनी अकर्मण्यता
से इन अमूल्य तथ्यों को विश्व के प्रबुद्ध समाज के सामने लाने का कोई प्रयास नहीं
करते। लेकिन अगर कोई भला आदमी प्रयास करता भी है तो ये
हिन्दूस्तान में बैठे पश्चिमबुद्धि काले अंग्रेज जो बैठे हैं, बिना जाने समझे इन तथ्यों को नकारने में। सबसे पहले तो इन तथाकथित
विज्ञानबुद्धियों से ही निपटने में बेचारे का हौंसला पस्त हो चुका होता है--- शेष
दुनिया को कोई क्या खाक समझाएगा।
यह निर्विवाद तथ्य है कि प्राचीन भारतीय ऋषि महर्षियों नें केवल
धर्मव्यवस्था, दर्शन, ज्योतिष तथा
कर्मकांड में ही नहीं बल्कि स्थापत्य कला, चिकित्साविज्ञान,
खगोलविज्ञान, यन्त्रनिर्माण इत्यादि वैज्ञानिक
क्षेत्र में भी विश्व का सफल नेतृ्त्व किया था।
महर्षि भारद्वाज प्रणीत "यन्त्र सर्वस्व" नामक ग्रन्थ
मननीय है।
उक्त ग्रन्थ के वैमानिक प्रकरण में सामरिक एवं नागरिक दोनों प्रकार
के विमानों के निर्माण का इतिहास यन्त्र, उपयन्त्र, शत्रु के साथ युद्ध करने की विधि, अपने निर्माण की रक्षा, शत्रु के ऊपर धुँआ छोडना,
उनको डराने के लिए भीषण आवाज करना, आग्नेयास्त्रों
का प्रयोग करना इत्यादि विभिन्न विषयों का सांगोपांग वर्णन है। महर्षि भारद्वाज के
शब्दों में पक्षियों की भान्ती उडने के कारण वायुयान को विमान कहते हैं। वेगसाम्याद विमानोण्डजानामिति ।।
विमानों के प्रकार:- शकत्युदगमविमान अर्थात विद्युत से चलने वाला
विमान, धूम्रयान(धुँआ,वाष्प आदि से चलने
वाला), अशुवाहविमान(सूर्य किरणों से चलने वाला), शिखोदभगविमान(पारे से चलने वाला), तारामुखविमान(चुम्बक
शक्ति से चलने वाला), मरूत्सखविमान(गैस इत्यादि से चलने
वाला), भूतवाहविमान(जल,अग्नि तथा वायु
से चलने वाला)।
इतना ही नहीं इसी वैमानिक प्रकरण के "अहाराधिकरण" नामक
खण्ड में विमानयात्रियों एवं चालकों के आहार अर्थात भोजन व्यवस्था का पूर्ण विवेचन
किया गया है। उक्त आहाराधिकरण का पहला सूत्र है "आहार कल्पभेदात"
अर्थात वायुयान यात्रियों को आशानकल्प नामक कहे ग्रन्थ में कहे गए
अनुसार ही भोजन व्यवस्था करनी चाहिए। यहाँ जिस आशानकल्प नामक ग्रन्थ का जिक्र किया
गया है, दुर्भाग्य से वो ग्रन्थ आज लुप्त हो गया है। लेकिन
जब महर्षि भारद्वाज नें अपने ग्रन्थ में इसका जिक्र किया है तो इतनी बात तो अवश्य
स्पष्ट हो जाती है कि वो ग्रन्थ उनसे भी पूर्वकालीक तथा अत्यन्त प्राचीन है और साथ
ही प्रमाणिक एवं शिष्ट सम्मत भी।
आगे महर्षि लिखते हैं कि विमान में भोजन व्यवस्था सर्वदा समयानुसार
होनी चाहिए साथ ही भोजन को आकाश के दूषित वातावरण एवं विमान के विषैले गैस के
प्रभाव से भी बचाना चाहिए। यदि विमान में किसी कारणवश
स्थूल भोजन न मिले या असुविधा हो अथवा अरूचिकर हो तो हल्का एवं सूखा
भोजन भी ग्रहण किया जा सकता है। रूचि के अनुसार कन्दमूल फल इत्यादि भी ग्राह्य हैं
।
महर्षि अगस्तय कृ्त "अगस्त्यविमानसंहिता" मे भी यह सिद्धान्त स्थिर किया गया है कि जिस प्रकार जल में नौकाएं तैरती
हैं, उसी प्रकार अन्तरिक्ष में वायुभार आदि के सन्तुलन से जो
यान गमनागमन करे ---वह विमान है। जले नौकेव यदयान
विमान व्योम्नि कीर्तीतम ।।
खैर ये तो बात हुई अति प्राचीन काल की लेकिन यदि मैं आप लोगों से
ये कहूँ कि इसी आधुनिक युग में जब 17 दिसंबर सन 1903 में राईट बन्धुओं द्वारा विमान का आविष्कार किया गया तो उससे 8 वर्ष पूर्व ही भारत में विमान का आविष्कार हो चुका था तो शायद आप लोग
विश्वास नहीं करेंगें। आप में से कुछ लोग इसे शायद निरा झूठ या "गप्प"
भी कह दें तो कोई अतिश्योक्ति न होगी । लेकिन ये बिल्कुल सच है । जी हाँ, सन 1895 में भारतवर्ष में मुम्बई के चौपाटी बीच पर
पंडित श्री शिवकर बापू तलपदे जी(जो कि आजीवन भारतीय पद्धति से विमान निर्माण में
लगे रहे) ने सम्पूर्ण भारतीय तकनीक से निर्मित " मरूत्सखा" नामक विमान
बनाकर उसे 18 फिट ऊपर आकाश में उडाया भी था । महाराज
सयाजीराव गायकवाड तथा श्रीरानाडे आदि विशिष्ट व्यक्तियों के समक्ष सम्पन इस
कार्यक्रम का सम्पूर्ण सचित्र विवरण तात्कालिक केशरी न.भा.टा. तथा धर्मयुग के
प्रथम अंक में प्रकाशित हुआ था । महाराजा बदौडा ने इस को आगे बढाने के लिए आर्थिक
सहायता की भी घोषणा की थी...लेकिन ब्रिटिश सरकार के चलते यह संभव नहीं हो पाया।
बाद में ब्रिटेन की "रेले" नाम की एक कम्पनी नें उस विमान का
ढाँचा मय सभी अधिकार खरीद लिए ।
अन्त में मैं आप लोगों से जानना चाहूँगा कि क्या उपरोक्त विवरण आपको
ये विश्वास नहीं दिलाता कि प्राचीन काल में विमान विद्या कपोल कल्पना न होकर एक
यथार्थ था। बेशक कुछ लोग मरते दम तक भारतीय ज्ञान-विज्ञान की सर्वोच्चता को अस्वीकार कर इन्हे कपोल कल्पना ही मानते रहें,लेकिन
वास्तविकता तो ये है कि ये सच है ओर ऎसे ही न
जाने कितने अगिणित विश्वासों को सार्थक करने एवं अपनी सत्यता की सिद्धी हेतु हमारे
सैंकडों हजारों ग्रन्थ आज भी सत्यन्वेषियों की राह देख रहे हैं।
विमानशास्त्रसे कुछ चित्र आपके लिए -
देखा जाए तो इन उपरोक्त वर्णित कथाओं को जब आज का तार्किक व प्रयोगशील व्यक्ति सुनता,पढ़ता है तो उसके मन में स्वाभाविक रूप से ये विचार आता है कि यें सब कपोल कल्पनाएं हैं, मानव के मनोंरंजन हेतु गढ़ी गई कहानियॉ मात्र है। ऐसा विचार आना सहज व स्वाभाविक है, क्योंकि आज देश में इस प्रकार के कहीं कोई प्राचीन अवशेष नहीं मिलते, जों ये सिद्ध कर सकें कि प्राचीनकाल में मनुष्य विमान निर्माण की तकनीक से परिचित था। किन्तु यदि भारतीय ग्रन्थों का सही तरीके से अध्ययन, मनन करें तो ये स्पष्ट हो जाता है कि युद्ध कौशल में प्रयोग होने वाले विभिन्न प्रक्षेपात्रों, अदृ्श्य अस्त्रों-शस्त्रों आदि की उपलब्धता भारत में विज्ञान के चर्मोत्कर्ष की ओर संकेत करती है। इसी क्रम में प्राचीन भारतीय विमान शास्त्र पर आज ये लेख प्रस्तुत कर रहा हूँ जिससे कि आप लोगों को प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान की एक झलकी मिल सके।
मैं यह दृ्डतापूर्वक कह सकता हूँ कि विभिन्न वैज्ञानिक निर्माण, आविष्कार आदि जितनी भी लोकोपयोगी विद्याएं हैं---ये सभी भारत की ही देन हैं। समुद्रतल तथा आकाशमंडल की परिधि में उडना, विभिन्न लोकों में गमन, विशाल भवन,यान, वाहन आदि का बनाना इत्यादि सम्पूर्ण यान्त्रिक संस्कृ्ति, आविष्कारों, खोजों की आदि विकासस्थली हमारी यह भारतभूमी ही है। व्यास,वशिष्ठ,विश्वामित्र,पाराशर, याज्ञवल्क्य, जैमिनी, अत्रि, वत्स, नारद, भारद्वाज, शकटायन, स्फोटायन, प्रभूति इत्यादि मन्त्रदृ्ष्टा ऋषि ही यन्त्रों के भी आविष्कारक तथा निर्माता रहे हैं । महर्षि अत्रि और वत्स तो अपने समय के तत्वान्वेषी वैज्ञानिक मनीषी थे तथा सर्वप्रथम इन्ही दो मनीषियों नें चन्द्र सूर्य ग्रहण विज्ञान और आकर्षण विज्ञान का पता लगाया था। जिसका विशद विवेचन यहाँ तो असंभव है। खेद है कि आज अपने इस गौरवपूर्ण अध्यायों से हम अपरिचित होकर उक्त तथ्यों के आविष्कार का श्रेय पश्चिमी जगत को देते हैं। ओर जो थोडे बहुत कुछ बहुत लोग इन तथ्यों से परिचित हैं भी, वो भी अपनी अकर्मण्यता से इन अमूल्य तथ्यों को विश्व के प्रबुद्ध समाज के सामने लाने का कोई प्रयास नहीं करते। लेकिन अगर कोई भला आदमी प्रयास करता भी है तो ये हिन्दूस्तान में बैठे पश्चिमबुद्धि काले अंग्रेज जो बैठे हैं, बिना जाने समझे इन तथ्यों को नकारने में। सबसे पहले तो इन तथाकथित विज्ञानबुद्धियों से ही निपटने में बेचारे का हौंसला पस्त हो चुका होता है--- शेष दुनिया को कोई क्या खाक समझाएगा।
यह निर्विवाद तथ्य है कि प्राचीन भारतीय ऋषि महर्षियों नें केवल धर्मव्यवस्था, दर्शन, ज्योतिष तथा कर्मकांड में ही नहीं बल्कि स्थापत्य कला, चिकित्साविज्ञान, खगोलविज्ञान, यन्त्रनिर्माण इत्यादि वैज्ञानिक क्षेत्र में भी विश्व का सफल नेतृ्त्व किया था।