बुधवार, 21 नवंबर 2012

वेद व गीता को आधार बनाकर हिन्दू धर्म को नीचा दिखने की कुछ नीचो की साजिश का प्रतिउत्तर


आज कल इस्लामिक कठमुल्लों और कमुनिस्टो के गठबंधन से हिन्दू धर्म के विरोध मे गीता और वेदो का संदर्भ देकर कुछ भ्रांतियाँ फैलाई जा रही है । कुछ पुस्तकों एवं लेखों मे हिदू धर्म व गीता के विरुद्ध कुछ प्रश्न व शंकाएं खड़ी की गयी हैं जो निम्न हैं। इन सर्वथा असत्याचरण पूर्ण , अज्ञानतापूर्ण शरारते बातों काबिन्दुवार निराकरण  डाक्टर श्याम गुप्ता ने प्रस्तुत किया है. 

पुस्तक ''क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिन्दू धर्म?''
डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा
'अज्ञात' विषय ''वेदों की निंदक गीता'' में लिखते हैं कि वेद और गीता के अतिरिक्ति सभी धर्म ग्रंथ मानव रचित माने जाते हैं । वेदों और गीता का विषयगत विश्लेकषण इस निर्णय पर ले जाता है कि ये दोनों धर्म ग्रंथ एक ही 'धर्म' के नहीं हो सकते और नही इन का रच्यिता एक ही तथाकथित परमात्मा  हो सकता है।
प्रथम आरोप :
-अज्ञानपूर्ण कथ्य-वेदों में  जगह जगह इच्छात और कामना पर बल दिया गया है-
      कुर्वन्नेेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छततं समाः
     एवं त्व्यि नान्थेकर तोऽस्ति न कर्म लिप्याते नरे- यजु 40/2
       ---अर्थातः हे मनुष्योंि, कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की इच्छा  करो
जबकि गीता  कहती है-----
       मा कर्मफलहेतुर्भूः - गीता 2/47
अयुक्त - काकारेण फले सक्तो- निबध्य/ते - गीता 5/12
अर्थात फल की इच्छाण रखने वाले व्योक्ति फल में आसक्ते होते हैा और बंधन में पड़ते हैं॥
निराकरण।
कोई  बच्चा भी उपरोक्त को पढकर जान सकता है कि वेदों में इच्छाओं व कामनाओं पर नहीं अपितु उचित सत्कर्म करने पर बल दिया गया है।न कर्म लिप्यते नर। अर्थात कर्मों  में लिप्त नहीं होना है। वही भाव गीतामें है। कर्म तो करना है पर फल की इच्छा से नहीं ।

द्वितीय आरोप: 
२-अज्ञान पूर्ण कथ्य -वेदों की ऐसी खाल तो नास्तिकों ने भी नहीं उतारी होगी जैसी गीता ने उतारी है, गीता -में वेदों के नाम पर गलत बयानी की गई है, वेदों में कहीं भी ईश्वनर को 'पुरूषोत्तीम' नहीं कहा गया, लेकिन गीता के 15 वें अध्यावय में गीता का वक्तां स्वरयंभू ईश्वीर कहता हैः
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित- पुरूषोत्तमः - 15/18
अर्थात में लोक और वेद में 'पुरूषोत्तम' के नाम से प्रसिद्ध हूं
निराकरण:
वेदों में प्रसिद्द  श्लोक
अणो अणीयान
, महतो महीयान   कहा गया है ईश्वर को श्वेताश्रोपनिषद में  समाहुग्र्यं पुरुष महान्तं   कहा गया है  इन का अर्थ 'पुरुषोत्तम ही है॥

तृतीय आरोप
३-अज्ञानपूर्ण कथ्य-  वेदों में  अवतारवाद का सिद्धांत है, वेदों में परमात्मा के अवतार धारण करने का कहीं उल्लेयख नहीं मिलता, पर गीता का यह एक प्रमुख सिद्धांत है।
यदा यदा हि धर्मस्यउ ग्लाखनिर्भवति भारत
अभ्युदतथानमधर्मस्यग तदात्मा्नं सृजाम्यपहम
परित्राणाय साध्‍ूनां विनाशाय च दुष्क़िताम्॥
धर्म संस्थासपनार्थाय संभवामि युगेयुगे - गीता 4/7-8-
अर्थात जब जब धर्म की ग्ला.नि होती और अधर्म की उन्नथति होती है
, तब तब मैं अर्थात (भगवान कृष्णउ) पैदा होता हूं, साधुओ की रक्षा और पापियों के विनाश के लिए तथा धर्म को स्थापित करने के लिए मैं हर युग में पैदा होता है |
निराकरण --- 
सही है गीता व सभी अवतार  वेदों के बहुत बाद की बातें है । वेदों में अवतारका वर्णन  कैसे होगा
? सृष्टि के समय ब्रह्मा द्वारा  सृष्टि रचना पर ऋग्वेद में कहा गया  है.  उन्होंने --- यथा पूर्वम अकल्पयत... अर्थात प्रत्येक कल्प में ,युग में नवीन सृष्टि ,पूर्व के सामान ही होती है,यह  सूत्र रूप में अवतारवाद की अवधारणा है।
 
चतुर्थ  आरोप
४-अज्ञान पूर्ण कथ्य-
एक धर्म के दो धर्मग्रंथों में ऐसा पारस्पाररिक विरोध हिन्दू  धर्म की ही विशेषता है , हम दोनों धर्म ग्रंथों में से एक को पूरी तरह अस्वीकार करें, विद्वानों का एक विशेषतः आर्यसमाजियों ने पिछली शताब्दी में ही वेद और गीता के इस
पारस्पारिक विरोध को पहचान कर अपने अपने ढंग से इस का परिहार करने की कोशिशें शुरू कर दी थीं
,स्वामी दयानंद सरस्वती के शिष्यस प. भीमसेन शर्मा ने इस और सब से प्रथम ध्यान दिया और कदम भी उठाया, उन्होंने देखा कि गीता का ईश्वेर साकार है जो वेदों में कथित निराकार ईश्वरर के सिद्धांत के विपरीत है ।
निराकरण----
तेत्तिरीयोपनिषद में ( यथा -यजुर्वेद ) कथन है:  असद इदमग्रे  आसीत
, ततौ वे सदजायत
वह निराकार था उससे साकार की उत्पत्ति हुई। ईश्वर-ब्रह्म दोनों रूप है
, अपने मूल रूप में । निराकार और लौकिक संसारी माया रूप -जीव रूप में। साकार  ज्ञानी लोग ही यह जान पाते हैं ॥ यही गीता में भी दर्शाया गया है ।

पांचवा आरोप
5 अज्ञानपूर्ण कथ्य-गीता ---सब एक ही ब्रह्म के रचे हुए हैं सुनिए कृष्ण के द्वारा ही-
ॐ तत्सपदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्पृीतः
ब्राह्मणास्तेदन वेदाश्च् यज्ञाश्च  विहिता पुरा - गीता 17/23
अर्थात हे अर्जुन, ओम् तत, सत ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानंदधन ब्रह्म का नाम कहा है, उसी से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेदा यज्ञआदि रचे गए हैं  ...गीता में कृष्ण. स््पहष्ट  घोषना कर रहे हैं कि सब से प्रमुख वेद सामवेद में ही हूं-
वेदानां सामवेदा स्मि - गीता 10/22
निराकरण --- सत्य ही तो है श्री कृष्ण । आत्म-ब्रह्म के रूप में यह घोषणा कर रहे हैं ,तो प्रत्येक वस्तु ब्रह्म ही तो है,तत सत् का अर्थ है  तू वही  ब्रह्म है। चार महा वेद - वाक्य हैं: अहं ब्रह्मास्मि . तत्वमसि , सर्व खल्विदं ब्रह्म, सोहं...मैं, तू, वह सभी ब्रह्म हैं ---

छठा आरोप
६-अज्ञानपूर्ण कथ्य -पुस्तक ''कितने अप्रासंगिक हैं धर्मग्रंथ'' में स. राकेशनाथ विषय 'गीता कर्मवाद की व्याूख्या  या कृष्णस का आत्म प्रचार'' में लिखते हैं गीता में कृष्ण  ने अधिकांश समय आत्मप्रचार में लगाया है, गीता के अधिकांश श्लोमकों में 'अस्ममद' शब्द् का किसी न किसी विभक्ति में प्रयोगा किया गया है, 'अस्म द' शब्दं उत्तम पुरूष के लिए प्रयोग किया जाता है हिन्दी में इसका स्थानापन्नय शब्द' 'मैं' है

गीता में कुल 700 श्लोनक हैं, कृष्ण  ने 620 श्लोषक कहे
375 बार 'मैं' का प्रयोग किया, इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है पूरी गीता में कृष्णी में, मुझ को, मैं ने, मेरे लिए, मेरा आदि  शब्दों  द्वारा अपनी ही बात कहते रहे हैं, अर्जुन के लिए जो कुछ कहा वह अपनी बात समझने का जोर डालने के लिए
सातवें अध्यावय में 30 श्लोएक हैं, इन में से दो श्लोकों (20 व 26) को छोड कर शेष सब के साथ 'मैं' मौजूद है, कुछ पंक्तियां देखिए-
श्रीमद् भगवद् गीता 7/6/11 का अनुवादः
अर्थात में सारे संसार का उत्प1त्तिु और प्रलय सथान अर्थात मूल कारण हूं, मेरे (6)अतिरिक्तु दूसरी वस्तुस कुछ भी नहीं, यह सारा संसार मुझ में इस प्रकार गुंथा हुआ है जैसे धागे में मणियां पिरोई रहती हैं (7) है अर्जुन में जल में रहस हूं तथा सुर्य चंद्रमा में प्रकाश हू, मे सारे वेदों में ओंकार हूं, मैं आकाश में शब्दे हूं, मैं मनुष्यों  में पुरूषार्थ हूं (8) मैं धरती में पवित्र गंध हूं और में अग्नि में तेज हूं, मैं सारे प्राणियों में जीवन तथा तपस्वियों में तप हूं (9) है पार्थ मुझे सारे प्राणियों का सनातन कारण समझ में बुद्धि्मानों की बु‍द्धि‍ और मैं तेज वालों का ते जूं (10) में बलवानों का काम तथा राग रहित बल हूं,मैं प्राणियां में र्ध्मांनुकूल कामवासना हूं (11)
क्या कृष्ण जी से यह पूछा जा सकता है कि जब आपके सिवा सारे संसार में कुछ है ही नहीं तो ये बढिया वस्तुएं छांटने से क्या  लाभ?
निराकरण---
वेदिक वाक्य है: .अणो अणीयान् महतो महीयान ॥ वह ब्रह्म कण कण में है ॥ .कृष्ण  स्वयं ब्रह्म -जीव की भांति चर्चा कर रहे हैं तो अस्मद का प्रयोग क्यों नहीं होगा। वेदों में स्वयं ब्रह्म कहता है----एकोहं बहुस्याम। अहं = मैं शब्द का प्रयोग है।

सातवाँ आरोप
७ -अज्ञानपूर्ण कथ्य--अगर आजकल कृष्ण  किसी को गीता का उपदेश दें तो उन्हेंक अपनी विभूतियों में निम्नूलिखित तत्व् और बढाने पडेंगे, ''है अर्जुन में आयुधों में परमाणु हूं, रेलगाडियों में डीलक्स् हूं, नेताओं में जवाहरलाल नेहरू हूं, सिने गायिकाओं में लतामंगेश्कर हूं, होटलों में 'अशोका होटल' हूं, चीनियों में माओत्सें तुंग हूं, प्रधान मंत्रियों में चर्चिल हूं, फिल्मोंष में 'संगम' हूं, मदिराओं में ह्वि‍स्कीं हूं, पर्वतारोहियों में तेनसिंह हूं, ठगों में नटरलाल हूं''
निराकरण
 सत्य है...कण कण में ब्रह्म है तो यह भी कहना असत्य नहीं होगा। परन्तु लौकिक रूप में , सांसारिक-मायिक -व्यावहारिक रूप जो श्रेष्ठ है उसी में ' मैं'.। मैं कहने, होने के लिए योगेश्वर बनना पड़ता है, कृष्ण बनना पडता है।
ब्रहम -रूप में आत्मसात होना पड़ता है तब कोई बनता है...ब्रह्म का 
'मैं '....

आठवाँ आरोप
 ८ -अज्ञानपूर्ण कथ्य--न जाने कैसा विचित्र समय था और कैसे अज्ञानी लोग थे, ईश्वर को भी जानने वाला कोई नहीं था उसे अपना परिचय स्वयं कराना पडा, अपनी एक एक बात विस्तावरपूर्वक बतानी पडी नीति तो यह बताती है कि अपने गुणों का स्वयं बखान करने से इंद्र भी छोटा बन जाता है
'इंद्रोऽपि लघुतां याति स्वडयं प्रख्याीपितैर्गुणै'
निराकरण--
निश्चय ही यह नियम  इंद्र ( समस्त देव गण )= इद्रियाँ
, सांसारिक -भाव युक्त जीव के लिए है। ब्रह्म --प्रत्येक बिंदु पर अपना परिचय देता है कि मनुष्य मेरे गुणों पर चले,परन्तु इन्द्रियों से भ्रमित मानव अपनी महत्ता को प्रख्यापित करने में मग्न  कुकर्म करता है तो ब्रह्म को चेताना पडता है। यही  वेद , उपनिषद, गीता, ब्राह्मण, पुराण, शास्त्रों की समान रूप से शिक्षा  है। उनमें कतई अंतर व द्विविधाभाव नहीं है। वे सभी वेदों से ही अवतरित हैं, होते हैं ,सामाजिक सामयिकता लिए हुये।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति। निश्चय ही जो इतने सम्पूर्ण, इतने सुंदर ढंग से जीवन को व्याख्यायित करने वाले ग्रन्थ लिख सकता है । वह परमात्मा ही  हो सकता है। परम-आत्मा, भगवान। ऐश्वर्यपूर्ण –ईश्वर।