हाथों में बैनर,
तख़्ती और चार्ट पेपर लिए आक्रोश के साथ बढ़ता जा रहा विकराल
कारवाँ। सबके दिलों में धधकती ज्वाला और लबों पर तिलमिलाते अल्फ़ाज़ और इन
अल्फ़ाज़ों में निहित प्रश्नों की एक लंबी श्रृंख्ला। आज़ाद भारत के बाद शायद यह
दृश्य पहली बार देखने को मिला। मानो सम्पूर्ण देश फिर किसी जंग के लिए एकजुट हो उठ
खड़ा हुआ हो। मानो किसी ने देश के ज़मीर पर चोट की हो। मानो निरंकुश सन्नाटे में
किसी की चीख हृदय को चीर गई हो। यह एक ऐसा मंजर है जिसे न किसी नेतृत्व की
आवश्यकता है और न किसी आह्नान की फिर भी इनके उद्देश्य निश्चित हैं और मंजिल
स्पष्ट।यह
जंग थी और है औरत के अधिकारों की, परन्तु इस बार इन
अधिकारों की श्रेणी में आरक्षण अथवा संपत्ति का अधिकार सम्मिलित नहीं है वरन् यह
माँग है सम्मान व सुरक्षा के अधिकार की। 16 दिसंबर को दिल्ली
में घटित गैंगरेप की शर्मनाक घटना ने संपूर्ण देश की आत्मा को झकझोर दिया। दरिंदगी
की समस्त सीमाओं के परे इस गैंगरेप ने महिलाओं की सुरक्षा एवं उनके सम्मान के
प्रति सरकार, न्याय व्यवस्था एवं पुरूष समाज के विचारों पर
कई प्रश्न चिह्न आरोपित कर दिये। राजधानी दिल्ली में अगर महिलाओं की सुरक्षा के
दावे ठोकने वाली व्यवस्था पर अपराधी इस कदर तमाचा मार रहे तो अन्य राज्यों से क्या
अपेक्षा की जाए! ए. सी. ऑफिस में विराजमान आलाकमान कितने गंभीर हैं सड़क की
वास्तविकता के प्रति? क्या व्यवस्था परिवर्तन बलिदान के बिना
अपेक्षित नहीं है? क्या इसके लिए किसी न किसी की बलि दी जानी
इतनी आवश्यक है? और इस बलि के पश्चात् संवेदनशीलता के प्रमाण
एवं न्याय प्राप्ति की क्या गारंटी है?
शायद
कुछ भी नहीं। निष्ठुर व्यवस्था से किसी भी संवेदना अथवा दया की आशा करना मूर्खता
है। यह शिकायत मात्र व्यवस्था से ही नही है। हमारा समाज भी अभी तक इसी संकीर्ण
मानसिकता के अधीन जीवन यापन कर रहा है। जहाँ एक ओर भ्रूण हत्या,
दहेज-हत्या, ऑनर किलिंग जैसे अपराध मानव जाति
को शर्मसार कर रहे है वहीं दूसरी ओर बलात्कार जैसे निर्मम कुकृत्य पशु जाति को
गौरवान्वित कर रहे हैं कि वे मानव नहीं है। इस घटना के प्रति उद्वेलित जनाक्रोश
प्रथम दृष्टया सिद्ध करता है कि इंसानियत जीवित है। समाज संवेदनहीनता का समर्थक
नही है और हम एक जीवित समाज में विचरण कर रहे है। परन्तु यह भ्रम टूटते अधिक समय
नहीं लगा। जब सारा देश इस द्रवित कर देने वाली घटना से उबल रहा है उस समय भी कुछ
या कहे बहुत से ऐसे निर्लज उदाहरण समाज में व्याप्त हैं जो इस प्रकार की शर्मनाक
घटनाओं के लिए महिलाओं को ही दोषी ठहरा स्वयं को दोषियों के पक्षधर सिद्ध कर रहे
हैं। फेसबुक पर एक ऐसे ही प्रोफाइल की सोच ने यह विचारने पर बाधित कर दिया कि इस
देशव्यापी प्रदर्शन के मूल मे कितनी ईमानदारी, सच्चाई,
मानवीय मूल्य या संवेदनशीलता निहित हैं? कहीं
यह सब भेड चाल तो नहीं? या मात्र एक दिखावा? या कहे कि ऐसे प्रदर्शनों में टीवी चैनलों व समाचार-पत्रों में अपनी
तस्वीर देखने का माध्यम? फेसबुक के उस प्रोफाइल ने एक बात तो
पूर्णतः स्पष्ट कर दी कि घटना भले ही कितनी भी जघन्य हो जाए परन्तु वह राक्षस
प्रवृत्ति को परिवर्तित या शर्मसार नहीं कर सकती। जहाँ बलात्कार पीड़िता की
दर्दनाक सच्चाई आँसू लाने के लिए पर्याप्त हैं, वहीं कुछ
लोगों की सोच यह भी है कि अगर शेर (पुरूष) की गुफा
में बकरियाँ (महिलाएँ) जाकर नाचेंगी तो यही होगा। कितना
घिनौना एवं घटिया वक्तव्य है यह! प्रश्न यह है कि ऐसे कृत्यों को अंजाम देने वालों
को क्या कहा जाए- शेर या कुत्ता? और क्या महिलाएँ बकरियाँ
अर्थात् जानवर हैं? क्या यह विचारधारा शिक्षित समाज के
अशिक्षित मस्तिष्क की नहीं है? इस वक्तव्य से एक बात तो
सिद्ध हो जाती है कि पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं से सम्मान की अपेक्षा तो दूर
की बात है इंसानियत की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। जब उनके लिए महिला का वजूद
जानवर तुल्य है तो भला एक जानवर सम्मान का हकदार कैसे हो सकता है? वह तो दुत्कार के भाग्य का स्वामी है। परन्तु दयनीय स्थिति यह है कि जानवर
को भी दिन में एक बार प्रेमपूर्वक पुचकार दिया जाता है और बलात्कार जैसे जघन्य
कृत्यों से भी वह सुरक्षित है परन्तु दुर्भाग्यशाली महिला जाति इस स्तर पर भी हार
जाती है। यह किसी एक व्यक्ति के विचार नहीं है। इस प्रकार के न जाने कितने विचार हमारे
आसपास हमें मानव होने पर शर्मसार कर रहे हैं।
शर्मिंदा
करने वाले शब्दों का अकाल सा पड़ जाता है जब दिल्ली में हुई इस दर्दनाक बलात्कार
की घटना के दो दिन बाद के एक समाचार-पत्र के एक पृष्ठ पर एक राज्य के एक ही
क्षेत्र में बलात्कार की नौ घटनाएँ पढ़ने के लिए मिलती हैं। राष्ट्रीय शर्म का
विषय है कि एक बेटी के लिए तो न्याय की गुहार अभी न्यायव्यवस्था को जगा भी न सकी
थी कि कई और बेटियाँ अपनी सिसकियों में ही दम तोड़ गई। ज़रा सोचिए देशव्यापी
आंदोलन की चीखें तो इस राक्षस प्रवृत्ति को व्यत्थित कर न सकी और जब देश शान्त भाव
से अपने-अपने घरों में सपने बुन रहा होता है तब इन प्रवृत्ति की तिलमिलाहट किस
सीमा तक क्रूर होती होगी? इसके प्रमाण दिल्ली की उस पीड़िता के देह पर
प्रदर्शित हो रहे हैं? तो क्या यह आंदोलन क्षणभंगुर है या
तत्कालिक परिस्थितियों का दिखावा? यह जनसैलाब शायद न्याय
व्यवस्था के कुछ पृष्ठ तो परिवर्तित कर दे परन्तु समाज में व्याप्त उस सोच को कैसे
परिवर्तित किया जाए जो इन अशोभनीय घटनाओं की जननी है?
क्या
कोई अंत है इन सबका? कैसे लगेगा अंकुश इन सब पर? कैसे
सुरक्षित अनुभव करें माँ-बेटी-बहन स्वयं को? क्या कभी ऐसा
देश भारत देश हो सकेगा जब महिलाएँ अपने श्वास की ध्वनि से इसलिए न घबराए कि अगर
किसी पुरूष ने उस ध्वनि को स्पर्श किया तो वह अपना वजूद खो देंगी? क्या कभी माता-पिता बेटी के जन्म पर निर्भय हो खुशियाँ मना सकेंगे?
क्या कभी इस देश के महिलाएँ गर्व से कह सकेंगी कि हम उस देश की
बेटियाँ हैं जहाँ हमें न केवल देवी के रूप में पूजा जाता है वरन् वास्तव में उस
पूजा की सार्थकता प्रासंगिक है? क्या यह सुनिश्चित किया जा
सकता है कि ऐसी घटनाओं से फिर कभी यह देश लज्जित नहीं होगा?
ऐसी
घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए किसी भी देश की कानून व्यवस्था का सख्त होना अति
आवश्यक है। बलात्कार और ऐसी ही क्रूरता से लिप्त एसिड केस,
ऐसी घटनाएँ हत्या से भी कहीं अधिक संगीन अपराध है। हत्या व्यक्ति को
एक बार मारती है परन्तु ये घटनाएँ न केवल भुक्तभोगी को वरन् उससे सम्बन्धित
प्रत्येक रिश्ते को हर पल मारती हैं और जीवन भर मारती हैं। प्रत्येक क्षण होती इस
जीवित-मृत्यु की सजा मात्र सात वर्ष पर्याप्त नहीं है। देखा जाए तो मृत्युदंड भी
इस अपराध के सम्मुख तुच्छ प्रतीत होता है। कई ऐसे देश हैं जहाँ इस प्रकार की
घटनाओं की सजा स्वरूप अपराधी को नपुंसक बना दिया जाता है। शायद यह सजा उसे उसके
अपराध का अहसास तो दिला सके परन्तु अगर भुक्तभोगी की सिसकियों से पूछा जाए तो वह
कभी इस सजा को उस खौफ के लिए पर्याप्त नहीं मानेगी जो उसके मन में घर कर जाता है।
उस अविश्वास को इस सजा से कभी नहीं पुनः प्राप्त कर सकेगी जो समाज के प्रति उसके
मस्तिष्क में समा जाता है। उस दर्द की भरपाई यह सजा कभी नहीं कर पाएगी जो उसके
कोमल अंगों को मिला है। और इस सजा की तसल्ली उसके आत्मविश्वास के लिए कभी पर्याप्त
नहीं हो पाएगी। इस प्रकार के अपराध पर अंकुश लगाने के लिए सिर्फ तालिबानी तरीके ही
कारगार साबित हो सकते हैं। ऐसे अपराधियों को ज़मीन में आधा दबाकर पत्थरों से मारा
जाना चाहिए जिससे प्रत्येक पत्थर इस प्रकार की मंशा रखने वालों तक की रूह को कँपा
सके। जिससे कोई भी दुष्ट विचार उत्पन्न होने से पहले ही अपने अंजाम को सोचने पर
मजबूर हो सके।
सच
पूछिए तो महिलाओं को संविधान में लिखित अधिकारों में संपत्ति के अधिकार देने से
पूर्व सम्मान का अधिकार दिया जाना चाहिए। उन्हें सुरक्षा के अधिकार की आवश्यकता
है। खुली हवा में स्वतंत्रतापूर्वक निर्भिक हो मुस्कराने के अधिकार की आवश्यकता
है। अगर ये अधिकार उन्हें प्राप्त हो जाए तो असमानता स्वतः समाप्त हो जाएगी।
लैंगिक असमानता का प्रश्न अस्तित्वहीन हो जाएगा। इसके लिए आवश्यकता है मानसिक स्तर
की परिधि को विस्तृत करने की। संकीर्णता को समाप्त कर स्वतंत्र सोच के विकास की।
अकेली महिला को देखकर जो आकर्षण पुरूष महसूस करते हैं उसके पल्लवित होने से पूर्व
उस महिला के स्थान पर अपने घर की महिला को रखकर विचार करें। क्या आप अपने परिजनों
के साथ किसी प्रकार का अशुभ होने की कल्पना करना चाहेंगे?
यदि नहीं, तो त्याग दीजिए प्रत्येक उस विचार
को जो दूसरों के घर की बेटियों के प्रति उमड़ता है। वैचारिक शुद्धता एवं पवित्रता
ही इस समस्या का समाधान हो सकती है। ऐसे में परिवार की जिम्मेदारी है कि वे बच्चों
में अच्छे संस्कार और अच्छी संस्कृति का विकास करे। उन्हें प्रत्येक जाति (स्त्री
व पुरूष) का सम्मान करने की शिक्षा दें। नैतिक मूल्यों का हृास किसी भी समाज के
अंत का संकेत है और वर्तमान परिस्थितियाँ भारत के संदर्भ में वास्तव में चिन्तनीय
हैं।
लेखिका : नीरजा तोमर
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