पिछले कुछ दिनों से एक बहस छिड़ी है की रक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश(FDI) को जो अनुमती दी गयी है उससे देश का फायदा होगा या नुकसान.हालांकि रक्षा विशेषज्ञ इस पर एकमत दिख रहे हैं.आगे का लेख लिखने से पहले मैं आप स्पष्ट करना चाहता हूँ की स्वयं में मैं स्वदेशी का एक प्रबल समर्थक हूँ और दूसरा की ये लेख नरेंद्र मोदी सरकार की किसी नीति को सही ठहराने के उद्देश्य से नहीं लिख रहा हूँ,इस काम के लिए भारतीय जनता पार्टी के पास काफी प्रबुद्ध प्रवक्ता हैं. वापस मुद्दे पर आते हुए रक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश के पक्ष या विपक्ष में तर्क करने से पहले हमे कुछ रक्षा सम्बन्धी जरूरतों और उसके आपूर्ति के प्रबंधन के बारे में समझना होगा. पिछले बीस-पच्चीस साल में रक्षा क्षेत्र में अगर बड़ी आपूर्ति के नाम पर रुसी नेवी द्वारा रिटायर किया हुआ एडमिरल गोर्शकोव नामक युद्धक पोत(जिसे बाद में स्वदेशी नाम आईएनएस विक्रमादित्य दिया गया ) और मुलायम सिंह के रक्षामंत्री रहते हुए सुखोई विमानों की खरीद है, जो पूरी तरह से बिदेशी खरीद थी.
आजादी के बाद ही किसी सरकार ने रक्षा क्षेत्र में शोध और उत्पादन को बढ़ावा नहीं दिया इसी कारण 1962 की हार के बाद से अब तक चीन से हमने आँख मिलाने की हिम्मत नहीं की और अपना प्रमुख प्रतिद्वंदी पाकिस्तान जैसे पिद्दे से देश को मान लिया जो पहले से ही गृहयुद्ध के कारण तबाह है. इधर पच्चीस सालो में सामरिक रूप से चीन ने हमे चारो और से घेरते हुए मुलभूत ढांचे में अत्यंत तीव्र गति से विकास कर लिया है.जिस चौकी तक हमारे सैनिको को पहुचने में 3 दिन लगेगा चीन ने वहां तक रोड बना के 4 घंटे में सप्लाई का प्रबंध कर दिया है. जब चीन से तुलनात्मक अध्ययन करते हैं तो भारत की स्थिति शायद कही नहीं ठहरती है . चाहे हमारे तोप हो मिसाइल हो, जहाज हो या नेवीवारशिप सबमे चीन हमसे काफी आगे है.और यही बात किसी भी रीढ़वाली राष्ट्रवादी सरकार को पीड़ा देगी की वो अपने पडोसी के सामने घुटने टेकते हुए घिसट रहा है क्यूकी संसाधन नहीं उपलब्ध नहीं हैं. विश्व की सबसे बहादुर सेना हताश निराश है क्यूकी उसके पास लड़ने के लिए बंदूके नहीं हैं.यह बात पूर्व सेना प्रमुख के तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लिखे पत्र से स्पष्ट है. अब यदि वर्तमान सरकार स्वदेशी फैक्ट्रियां डाल कर विमान युद्धपोत और अन्य रक्षा उपकरण बनाने लगे तो कम से कम यह 25 साल की परियोजना होगी. इस समय अंतराल की वास्तविकता का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं की लगभग बीस साल से स्वदेशी विमान “तेजस” का निर्माण जारी है और आज तक वह विमान वायुसेना के मानको को पूरा नहीं कर पाया है जिससे उसकी सेवाओं का उपयोग भारतीय वायुसेना कर सके. इसमें 6 साल आदरणीय वाजपेयी जी के कार्यकाल के भी है जिनकी सरकार विकास सम्बन्धी फैसले में अव्वल थी.उस पर भी ध्यान देने योग्य बात ये है की इस विमान का इंजन बिदेशी है जिस पर हिन्दुस्थान का ठप्पा लगाया जायेगा .तो आप कल्पना कीजिये बिना इंजन के सिर्फ नियंत्रण प्रणाली और ढांचा पिछले बीस साल से बन रहा है सफल नहीं हुआ अगर इस आधार पर चीन से आँख मिलाने की परिकल्पना करे तो शायद पूरा पूर्वोत्तर भारत चीन के हवाले करना पड़ेगा और हमारी आँख फिर भी नीचे रहेगी.इससे इतर जो बड़ी समस्या है की काल्पनिक रूप से यदि इतना बड़ा तंत्र खड़ा कर लिया जाये तो उसके लिए पैसे कहाँ से आयेंगे.जाहिर है इस पर ये कहना की कालेधन को स्विट्जरलैंड से माँगा कर रक्षा का आधारभूत ढांचा तैयार होगा एक कोरी कल्पना से ज्यादा कुछ नहीं हैं. काल्पनिक रूप से ये भी मान ले की वित्त का प्रबंध हो गया तो क्या हमारे पास उस उच्च स्तर की तकनीकी और प्रशिक्षित प्रतिभाएं हैं . एक रक्षा विशेषज्ञ से संवाद के दौरान उन्होंने एक बहुत मौलिक प्रश्न उठाया की यदि भारत ने तेजस जैसे विमान की एक फैक्ट्री विकसित भी ले तो सिर्फ 100 विमानों के लिए विमान निर्माण का ढांचा नहीं बनाया जा सकता उसके बाद उसे ग्राहक कहाँ से मिलेंगे क्यूकी बिना शोध के हमारी तकनीकी 30 साल पुरानी होगी और रूस और फ़्रांस जैसे बड़े उत्पादक उससे कम दाम में उच्च तकनीकी उपलब्ध करा देंगे.
नासा या अन्य देशों में हमारी प्रतिभाएं सफल है क्यूकी वहां का शोध का आधारभूत ढांचा अत्याधुनिक एवं विश्वस्तरीय है.वहां सिर्फ हमारी प्रतिभाओं को मूल्य संवर्धन (VALUE ADDITION) करना है,जबकि इसके उलट भारत में पूर्ववर्ती सरकार की उपेक्षा के कारण शोध(RESEARCH) का आधारभूत ढांचा न के बराबर है. हमारी समस्या यही है की हम खीच खांच के घरेलू उत्पादन के बजट का जुगाड़ कर लें तो शोध के नाम पर “ऊंट के मुह में जीरा”. जबकि शोध और उत्पादन दोनों दो स्तर हैं एक विश्वस्तरीय उत्पाद के लिए. और उसमे भी सबसे प्रमुख है भारत में शोध क्षेत्र में काम न होना.सर्वप्रथम सरकार प्रथम स्तर पर कार्य कर ले फिर दूसरे स्तर उत्पादन पर कुछ सोचा जा सकता है..तो क्या जब तक ये सब स्तर हम प्राप्त न हो हम कोई भी उत्पाद बिदेश से न मंगाए या बिदेश पर निर्भर न रहे और अपने सैनिको और जनता को कांग्रेस के शासन काल की तरह मरने के लिए छोड़ दें?मेरी समझ से कोई भी ये नहीं चाहेगा की संसाधन की कमी से हमारे वीर सैनिक और निर्दोष जनता मारी जाये तो फिलहाल एक ही विकल्प बचता है बिदेश से रक्षा उपकरणों की खरीद और यही हम न्यूनाधिक मात्रा में कर भी रहे हैं. शोध और निवेश के अलावा रक्षा मोर्चे पर बिदेशों से रक्षा उपकरण मंगाने एवं FDI को हरी झंडी देने के पीछे दो और प्रमुख कारण हैं जिसे ज्यादातर लोग नजअंदाज कर रहे हैं प्रथम है तकनीकी स्थानान्तरण(Techonology Transfer) तो दूसरा है उपकरणों के मरम्मत सम्बन्धी कलपुर्जे (Spare Part) के व्यापार का खेल.
हम जितने भी देशों से रक्षा उपकरण आयात करते हैं उसमे से रूस को छोड़कर कोई भी देश तकनीकी स्थानान्तरण(Techonology Transfer) नहीं करता है. मतलब हमने कोई उपकरण ख़रीदा तो एक तकनीकी दल उसके प्रचालन की रखरखाव ट्रेनिंग ले कर आएगा और कंपनी ने अपना पल्ला छुड़ा लिया. अब यदि वही कंपनी यहाँ फैक्ट्री बनाती है तो हमारी सरकार का उसपर पूर्ण नियंत्रण होगा क्यूकी उसका निवेश हिन्दुस्थान में लगा होगा तो हमारी रक्षा व्यवस्था के साथ सहयोग को अस्वीकार करना आसान नहीं होगा.दूसरी और ऐसा संभव नहीं है की फैक्ट्री की सम्पूर्ण जनशक्ति (मैनपॉवर) बिदेश से आये.यहाँ फैक्ट्री होगी तो उस तकनीकी में हजारो भारतीय भी दक्ष होंगे ज्ञातव्य हो ये तेल साबुन बनाने की तकनीकी नहीं होगी,ये तकनीकी रक्षा उपकरणों से सम्बंधित होगी. जो आगे हमारे व्यवस्था के स्वदेशीकरण में लाभदायक होगा. हमारी सरकार का इस बात पर भी पूर्ण नियंत्रण होगा की यहाँ से सस्ती जनशक्ति और संसाधन लेकर माल यहाँ बना कर अन्य देशों में न बेचा जाये मतलब हिन्दुस्थान में लगी फैक्ट्री का अधिकांश उत्पादन यही के लिए होगा.शोध कार्य वो अन्य इकाईयों(subsideries)के माध्यम से कर के यहाँ उपयोग कर सकते है.
रक्षा उपकरणों के मरम्मत सम्बन्धी कलपुर्जों का एक बहुत बड़ा बाजार सक्रीय है जो एक बार उपकरण खरीद लेने के बाद कलपुर्जों के नाम पर मनमाने ढंग से मोटी रकम हिन्दुस्थान से वसूल करता है.जैसे सुखोई विमान हमने रूस से लिया उसका नोज संयुक्त रूस के किसी अन्य भाग में बना इंजन कही और ढांचा कहीं और बाकी उपकरण कही और. आज भारतीय वायु सेना के सामने सबसे बड़ी समस्या ये है की रूस के विघटन के बाद उसे अलग अलग देशों से स्पेयर पार्ट खरीदने पड़ते हैं.कुछ देशों ने फैक्ट्रियां बंद कर दी अब किसी भी कीमत पर वो कल पुर्जे नहीं मिल सकते और सुखोई विमान उड़न ताबूत बन चुके हैं.यदि ये स्पेयर पार्ट हिन्दुस्थान में उपलब्ध होते तो कई हजार करोड का फायदा एवं कई विमानों की आयु बढ़ सकती थी. यही हाल अन्य रक्षा उपकरणों में भी है.
एक अन्य महत्त्वपूर्ण बिंदु ये है की यदि सामान यहाँ बना तो बिदेशी मुद्रा भंडार बचेगा जो वर्तमान अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक है और उतनी ही पूंजी में हमें ज्यादा उपकरण मुहैया होंगे जिनके उत्पादन प्रक्रिया पर भारत सरकार का पूरा नियंत्रण अपने विभिन्न एजेंसियों के माध्यम से होगा.इसके अलवा कुछ संशय इस बात पर हैं की हमारा पूरा रक्षा तंत्र बिदेशियों के हाथ में चला जायेगा तो यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है विदेशी निवेश कभी भी कोर सेक्टर जिससे देश की सुरक्षा में समस्या आ सकती है उसमे नहीं होता है. अभी फिलहाल में तो ये पेरिफेरल सेक्टर में है. जैसे नाईट विजन उपकरण आदि. कोई भी उपकरण खरीदने के बाद भारतीय रक्षा तंत्र अपनी आवश्यकता के अनुसार उसमे परिवर्तन करता है जिससे किसी अन्य देश को जो उसी उत्पादक कंपनी से वही उपकरण लेता है,उससे हमारे उपकरण के कोर आपरेशन की गोपनीयता कुछ स्तर तक बनायीं जा सके.
जहाँ तक राजीव भाई के विचारों के समर्थन करने वाले बंधुओं का सवाल है राजीव भाई ने स्वयं अपने व्याख्यानों में शून्य तकनीकी उत्पादों जैसे तेल मसाला साबुन आदि में बिदेशी निवेश का विरोध किया है . उन्होंने स्वयं अपने व्याख्यानों में कहा है की कोई भी बिदेशी कंपनी भारत में मिसाइल या कोई रक्षा उपकरण बनाने की फैक्ट्री क्यों नहीं लगाती?? यदि आज उनकी बात को आंशिक रूप से सत्य किया जा रहा है तो इसका निषेध क्यों?? स्वदेशीकरण धीमी गति से चलने वाली लम्बी प्रक्रिया है. जो पांच साल में नहीं हो सकती हाँ मगर वर्तमान सरकार को सामानांतर रूप से स्वदेशी तकनीकी पर शोध को पर्याप्त अवसर देना होगा तथा ऐसे व्यवस्था की नींव रखनी होगी जिससे आने वाले दशक में हिन्दुस्थान कम से कम अपनी रक्षा जरूरतों का कुछ भाग में स्वावलंबी हो सके..
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