* बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥
भावार्थ:-मैं
उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र
और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने
के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥
चौपाई :
* बंदऊँ गुरु पद पदुम
परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥
भावार्थ:-मैं
गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि
(सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह
अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव
रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥1॥
* सुकृति संभु तन
बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥2॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥2॥
भावार्थ:-वह
रज सुकृति (पुण्यवान् पुरुष) रूपी शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और
सुंदर कल्याण और आनन्द की जननी है, भक्त के मन रूपी
सुंदर दर्पण के मैल को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में
करने वाली है॥2॥
* श्री गुर पद नख मनि
गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥
भावार्थ:-श्री
गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश
अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में
आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं॥3॥
* उघरहिं बिमल बिलोचन
ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥4॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥4॥
भावार्थ:-उसके
हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के
दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई
पड़ने लगते हैं-॥4॥
दोहा :
* जथा सुअंजन अंजि
दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥
भावार्थ:-जैसे
सिद्धांजन को नेत्रों में लगाकर साधक, सिद्ध और सुजान
पर्वतों, वनों और पृथ्वी के अंदर कौतुक से ही बहुत सी खानें
देखते हैं॥1॥
चौपाई :
* गुरु पद रज मृदु
मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥
भावार्थ:-श्री
गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अंजन से विवेक रूपी नेत्रों
को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ॥1॥
ब्राह्मण-संत
वंदना
* बंदउँ प्रथम महीसुर चरना।
मोह जनित संसय सब हरना॥
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥2॥
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥2॥
भावार्थ:-पहले पृथ्वी के
देवता ब्राह्मणों के चरणों की वन्दना करता हूँ, जो अज्ञान से
उत्पन्न सब संदेहों को हरने वाले हैं। फिर सब गुणों की खान संत समाज को प्रेम सहित
सुंदर वाणी से प्रणाम करता हूँ॥2॥
* साधु चरित सुभ चरित कपासू।
निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥3॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥3॥
भावार्थ:-संतों
का चरित्र कपास के चरित्र (जीवन) के समान शुभ है, जिसका फल
नीरस, विशद और गुणमय होता है। (कपास की डोडी नीरस होती है,
संत चरित्र में भी विषयासक्ति नहीं है, इससे
वह भी नीरस है, कपास उज्ज्वल होता है, संत
का हृदय भी अज्ञान और पाप रूपी अन्धकार से रहित होता है, इसलिए
वह विशद है और कपास में गुण (तंतु) होते हैं, इसी प्रकार संत
का चरित्र भी सद्गुणों का भंडार होता है, इसलिए वह गुणमय
है।) (जैसे कपास का धागा सुई के किए हुए छेद को अपना तन देकर ढँक देता है, अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने, काते जाने और बुने जाने
का कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढँकता
है, उसी प्रकार) संत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्रों
(दोषों) को ढँकता है, जिसके कारण उसने जगत में वंदनीय यश
प्राप्त किया है॥3॥
* मुद मंगलमय संत समाजू। जो
जग जंगम तीरथराजू॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥4॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥4॥
भावार्थ:-संतों
का समाज आनंद और कल्याणमय है, जो जगत में चलता-फिरता तीर्थराज
(प्रयाग) है। जहाँ (उस संत समाज रूपी प्रयागराज में) राम भक्ति रूपी गंगाजी की
धारा है और ब्रह्मविचार का प्रचार सरस्वतीजी हैं॥4॥
* बिधि निषेधमय कलिमल हरनी।
करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥5॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥5॥
भावार्थ:-विधि
और निषेध (यह करो और यह न करो) रूपी कर्मों की कथा कलियुग के पापों को हरने वाली
सूर्यतनया यमुनाजी हैं और भगवान विष्णु और शंकरजी की कथाएँ त्रिवेणी रूप से
सुशोभित हैं,
जो सुनते ही सब आनंद और कल्याणों को देने वाली हैं॥5॥
* बटु बिस्वास अचल निज धरमा।
तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥6॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥6॥
भावार्थ:-(उस
संत समाज रूपी प्रयाग में) अपने धर्म में जो अटल विश्वास है, वह अक्षयवट है और शुभ कर्म ही उस तीर्थराज का समाज (परिकर) है। वह (संत
समाज रूपी प्रयागराज) सब देशों में, सब समय सभी को सहज ही
में प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेवन करने से क्लेशों को नष्ट करने वाला
है॥6॥
* अकथ अलौकिक तीरथराऊ । देह
सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥7॥
भावार्थ:-वह
तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय है एवं तत्काल फल देने वाला है, उसका प्रभाव प्रत्यक्ष है॥7॥
दोहा :
* सुनि समुझहिं जन मुदित मन
मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥2॥
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥2॥
भावार्थ:-जो
मनुष्य इस संत समाज रूपी तीर्थराज का प्रभाव प्रसन्न मन से सुनते और समझते हैं और
फिर अत्यन्त प्रेमपूर्वक इसमें गोते लगाते हैं, वे इस शरीर के रहते
ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- चारों फल पा जाते हैं॥2॥
चौपाई :
* मज्जन फल पेखिअ ततकाला।
काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥1॥
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥1॥
भावार्थ:-इस
तीर्थराज में स्नान का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और
बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संग की
महिमा छिपी नहीं है॥1॥
* बालमीक नारद घटजोनी। निज
निज मुखनि कही निज होनी॥
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥2॥
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥2॥
भावार्थ:-वाल्मीकिजी, नारदजी और अगस्त्यजी ने अपने-अपने मुखों से अपनी होनी (जीवन का वृत्तांत)
कही है। जल में रहने वाले, जमीन पर चलने वाले और आकाश में
विचरने वाले नाना प्रकार के जड़-चेतन जितने जीव इस जगत में हैं॥2॥
* मति कीरति गति भूति भलाई।
जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥3॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥3॥
भावार्थ:-उनमें
से जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति
(ऐश्वर्य) और भलाई पाई है, सो सब सत्संग का ही प्रभाव समझना
चाहिए। वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है॥3॥
* बिनु सतसंग बिबेक न होई।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥
भावार्थ:-सत्संग
के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता
नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है
और सब साधन तो फूल है॥4॥
* सठ सुधरहिं सतसंगति पाई।
पारस परस कुधात सुहाई॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥5॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥5॥
भावार्थ:-दुष्ट
भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा
सुहावना हो जाता है (सुंदर सोना बन जाता है), किन्तु दैवयोग
से यदि कभी सज्जन कुसंगति में पड़ जाते हैं, तो वे वहाँ भी
साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं। (अर्थात् जिस प्रकार साँप
का संसर्ग पाकर भी मणि उसके विष को ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाश को
नहीं छोड़ती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टों के संग में रहकर
भी दूसरों को प्रकाश ही देते हैं, दुष्टों का उन पर कोई
प्रभाव नहीं पड़ता।)॥5॥
* बिधि हरि हर कबि कोबिद
बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥
सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥6॥
सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥6॥
भावार्थ:-ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कवि और पण्डितों
की वाणी भी संत महिमा का वर्णन करने में सकुचाती है, वह
मुझसे किस प्रकार नहीं कही जाती, जैसे साग-तरकारी बेचने वाले
से मणियों के गुण समूह नहीं कहे जा सकते॥6॥
दोहा :
* बंदउँ संत समान चित हित
अनहित नहिं कोइ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥3 (क)॥
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥3 (क)॥
भावार्थ:-मैं
संतों को प्रणाम करता हूँ,
जिनके चित्त में समता है, जिनका न कोई मित्र
है और न शत्रु! जैसे अंजलि में रखे हुए सुंदर फूल (जिस हाथ ने फूलों को तोड़ा और
जिसने उनको रखा उन) दोनों ही हाथों को समान रूप से सुगंधित करते हैं (वैसे ही संत
शत्रु और मित्र दोनों का ही समान रूप से कल्याण करते हैं।)॥3 (क)॥
* संत सरल चित जगत हित जानि
सुभाउ सनेहु।
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥ 3 (ख)
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥ 3 (ख)
भावार्थ:-संत
सरल हृदय और जगत के हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और
स्नेह को जानकर मैं विनय करता हूँ, मेरी इस बाल-विनय को
सुनकर कृपा करके श्री रामजी के चरणों में मुझे प्रीति दें॥ 3 (ख)॥
खल
वंदना
चौपाई :
* बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ।
जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥1॥
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥1॥
भावार्थ:-अब
मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन,
अपना हित करने वाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरों के हित की
हानि ही जिनकी दृष्टि में लाभ है, जिनको दूसरों के उजड़ने में
हर्ष और बसने में विषाद होता है॥1॥
* हरि हर जस राकेस राहु से।
पर अकाज भट सहसबाहु से॥
जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥2॥
जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥2॥
भावार्थ:-जो
हरि और हर के यश रूपी पूर्णिमा के चन्द्रमा के लिए राहु के समान हैं (अर्थात जहाँ
कहीं भगवान विष्णु या शंकर के यश का वर्णन होता है, उसी में वे
बाधा देते हैं) और दूसरों की बुराई करने में सहस्रबाहु के समान वीर हैं। जो दूसरों
के दोषों को हजार आँखों से देखते हैं और दूसरों के हित रूपी घी के लिए जिनका मन
मक्खी के समान है (अर्थात् जिस प्रकार मक्खी घी में गिरकर उसे खराब कर देती है और
स्वयं भी मर जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग दूसरों के
बने-बनाए काम को अपनी हानि करके भी बिगाड़ देते हैं)॥2॥
*तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ
अवगुन धन धनी धनेसा॥
उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥3॥
उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥3॥
भावार्थ:-जो
तेज (दूसरों को जलाने वाले ताप) में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान हैं, पाप और अवगुण रूपी धन में कुबेर के समान धनी हैं, जिनकी
बढ़ती सभी के हित का नाश करने के लिए केतु (पुच्छल तारे) के समान है और जिनके
कुम्भकर्ण की तरह सोते रहने में ही भलाई है॥3॥
* पर अकाजु लगि तनु
परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥
बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥4॥
बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥4॥
भावार्थ:-जैसे
ओले खेती का नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरों
का काम बिगाड़ने के लिए अपना शरीर तक छोड़ देते हैं। मैं दुष्टों को (हजार मुख
वाले) शेषजी के समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो पराए दोषों
का हजार मुखों से बड़े रोष के साथ वर्णन करते हैं॥4॥
* पुनि प्रनवउँ पृथुराज
समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥5॥
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥5॥
भावार्थ:-पुनः
उनको राजा पृथु (जिन्होंने भगवान का यश सुनने के लिए दस हजार कान माँगे थे) के
समान जानकर प्रणाम करता हूँ, जो दस हजार कानों से दूसरों के
पापों को सुनते हैं। फिर इन्द्र के समान मानकर उनकी विनय करता हूँ, जिनको सुरा (मदिरा) नीकी और हितकारी मालूम देती है (इन्द्र के लिए भी
सुरानीक अर्थात् देवताओं की सेना हितकारी है)॥5॥
* बचन बज्र जेहि सदा पिआरा।
सहस नयन पर दोष निहारा॥6॥
भावार्थ:-जिनको
कठोर वचन रूपी वज्र सदा प्यारा लगता है और जो हजार आँखों से दूसरों के दोषों को
देखते हैं॥6॥
दोहा :
* उदासीन अरि मीत हित सुनत
जरहिं खल रीति।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥4॥
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥4॥
भावार्थ:-दुष्टों
की यह रीति है कि वे उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, किसी का भी हित सुनकर जलते हैं। यह जानकर दोनों हाथ जोड़कर यह जन
प्रेमपूर्वक उनसे विनय करता है॥4॥
चौपाई :
* मैं अपनी दिसि कीन्ह
निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥1॥
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥1॥
भावार्थ:-मैंने
अपनी ओर से विनती की है,
परन्तु वे अपनी ओर से कभी नहीं चूकेंगे। कौओं को बड़े प्रेम से
पालिए, परन्तु वे क्या कभी मांस के त्यागी हो सकते हैं?॥1॥
संत-असंत
वंदना
* बंदउँ संत असज्जन चरना।
दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥2॥
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥2॥
भावार्थ:-अब
मैं संत और असंत दोनों के चरणों की वन्दना करता हूँ, दोनों ही
दुःख देने वाले हैं, परन्तु उनमें कुछ अन्तर कहा गया है। वह
अंतर यह है कि एक (संत) तो बिछुड़ते समय प्राण हर लेते हैं और दूसरे (असंत) मिलते
हैं, तब दारुण दुःख देते हैं। (अर्थात् संतों का बिछुड़ना
मरने के समान दुःखदायी होता है और असंतों का मिलना।)॥2॥
* उपजहिं एक संग जग माहीं।
जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥
सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥3॥
सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥3॥
भावार्थ:-दोनों
(संत और असंत) जगत में एक साथ पैदा होते हैं, पर (एक साथ पैदा
होने वाले) कमल और जोंक की तरह उनके गुण अलग-अलग होते हैं। (कमल दर्शन और स्पर्श
से सुख देता है, किन्तु जोंक शरीर का स्पर्श पाते ही रक्त
चूसने लगती है।) साधु अमृत के समान (मृत्यु रूपी संसार से उबारने वाला) और असाधु
मदिरा के समान (मोह, प्रमाद और जड़ता उत्पन्न करने वाला) है,
दोनों को उत्पन्न करने वाला जगत रूपी अगाध समुद्र एक ही है।
(शास्त्रों में समुद्रमन्थन से ही अमृत और मदिरा दोनों की उत्पत्ति बताई गई
है।)॥3॥
*भल अनभल निज निज करतूती। लहत
सुजस अपलोक बिभूती॥
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥4॥
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥5॥
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥4॥
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥5॥
भावार्थ:-भले
और बुरे अपनी-अपनी करनी के अनुसार सुंदर यश और अपयश की सम्पत्ति पाते हैं। अमृत, चन्द्रमा, गंगाजी और साधु एवं विष, अग्नि, कलियुग के पापों की नदी अर्थात् कर्मनाशा और
हिंसा करने वाला व्याध, इनके गुण-अवगुण सब कोई जानते हैं,
किन्तु जिसे जो भाता है, उसे वही अच्छा लगता
है॥4-5॥
दोहा :
* भलो भलाइहि पै लहइ लहइ
निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥5॥
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥5॥
भावार्थ:-भला
भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचता को ही ग्रहण किए रहता है। अमृत की सराहना अमर
करने में होती है और विष की मारने में॥5॥
चौपाई :
* खल अघ अगुन साधु गुन गाहा।
उभय अपार उदधि अवगाहा॥
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥1॥
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥1॥
भावार्थ:-दुष्टों
के पापों और अवगुणों की और साधुओं के गुणों की कथाएँ- दोनों ही अपार और अथाह
समुद्र हैं। इसी से कुछ गुण और दोषों का वर्णन किया गया है, क्योंकि बिना पहचाने उनका ग्रहण या त्याग नहीं हो सकता॥1॥
* भलेउ पोच सब बिधि उपजाए।
गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥
कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥2॥
कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥2॥
भावार्थ:-भले-बुरे
सभी ब्रह्मा के पैदा किए हुए हैं, पर गुण और दोषों को विचार कर
वेदों ने उनको अलग-अलग कर दिया है। वेद, इतिहास और पुराण
कहते हैं कि ब्रह्मा की यह सृष्टि गुण-अवगुणों से सनी हुई है॥2॥
* दुख सुख पाप पुन्य दिन राती।
साधु असाधु सुजाति कुजाती॥
दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥3॥
माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा
कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥4॥
सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा॥5॥
दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥3॥
माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा
कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥4॥
सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा॥5॥
भावार्थ:-दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु,
सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष, सुजीवन
(सुंदर जीवन)-मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर,
सम्पत्ति-दरिद्रता, रंक-राजा, काशी-मगध, गंगा-कर्मनाशा, मारवाड़-मालवा,
ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य (ये सभी पदार्थ ब्रह्मा की सृष्टि में हैं।) वेद-शास्त्रों
ने उनके गुण-दोषों का विभाग कर दिया है॥3-5॥
दोहा :
* जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व
कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥
भावार्थ:-विधाता
ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किन्तु संत रूपी
हंस दोष रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं॥6॥
चौपाई :
* अस बिबेक जब देइ बिधाता।
तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥1॥
काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥1॥
भावार्थ:-विधाता
जब इस प्रकार का (हंस का सा) विवेक देते हैं, तब दोषों को छोड़कर
मन गुणों में अनुरक्त होता है। काल स्वभाव और कर्म की प्रबलता से भले लोग (साधु)
भी माया के वश में होकर कभी-कभी भलाई से चूक जाते हैं॥1॥
* सो सुधारि हरिजन जिमि
लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥2॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥2॥
भावार्थ:-भगवान
के भक्त जैसे उस चूक को सुधार लेते हैं और दुःख-दोषों को मिटाकर निर्मल यश देते
हैं,
वैसे ही दुष्ट भी कभी-कभी उत्तम संग पाकर भलाई करते हैं, परन्तु उनका कभी भंग न होने वाला मलिन स्वभाव नहीं मिटता॥2॥
* लखि सुबेष जग बंचक जेऊ।
बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥
उघरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥3॥
उघरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥3॥
भावार्थ:-जो
(वेषधारी) ठग हैं,
उन्हें भी अच्छा (साधु का सा) वेष बनाए देखकर वेष के प्रताप से जगत
पूजता है, परन्तु एक न एक दिन वे चौड़े आ ही जाते हैं,
अंत तक उनका कपट नहीं निभता, जैसे कालनेमि,
रावण और राहु का हाल हुआ ॥3॥
* किएहुँ कुबेषु साधु
सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥
हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥4॥
हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥4॥
भावार्थ:-बुरा
वेष बना लेने पर भी साधु का सम्मान ही होता है, जैसे जगत में
जाम्बवान् और हनुमान्जी का हुआ। बुरे संग से हानि और अच्छे संग से लाभ होता है,
यह बात लोक और वेद में है और सभी लोग इसको जानते हैं॥4॥
* गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा।
कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं॥5॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं॥5॥
भावार्थ:-पवन
के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती है और वही नीच (नीचे की ओर बहने वाले) जल के संग
से कीचड़ में मिल जाती है। साधु के घर के तोता-मैना राम-राम सुमिरते हैं और असाधु
के घर के तोता-मैना गिन-गिनकर गालियाँ देते हैं॥5॥
* धूम कुसंगति कारिख होई।
लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई॥
सोइ जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥6॥
सोइ जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥6॥
भावार्थ:-कुसंग के कारण धुआँ
कालिख कहलाता है,
वही धुआँ (सुसंग से) सुंदर स्याही होकर पुराण लिखने के काम में आता
है और वही धुआँ जल, अग्नि और पवन के संग से बादल होकर जगत को
जीवन देने वाला बन जाता है॥6॥
दोहा :
* ग्रह भेजष जल पवन पट पाइ
कुजोग सुजोग।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥7 (क)॥
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥7 (क)॥
भावार्थ:-ग्रह, औषधि, जल, वायु और वस्त्र- ये
सब भी कुसंग और सुसंग पाकर संसार में बुरे और भले पदार्थ हो जाते हैं। चतुर एवं
विचारशील पुरुष ही इस बात को जान पाते हैं॥7 (क)॥
* सम प्रकास तम पाख दुहुँ
नाम भेद बिधि कीन्ह।
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥7 (ख)॥
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥7 (ख)॥
भावार्थ:-महीने
के दोनों पखवाड़ों में उजियाला और अँधेरा समान ही रहता है, परन्तु विधाता ने इनके नाम में भेद कर दिया है (एक का नाम शुक्ल और दूसरे
का नाम कृष्ण रख दिया)। एक को चन्द्रमा का बढ़ाने वाला और दूसरे को उसका घटाने
वाला समझकर जगत ने एक को सुयश और दूसरे को अपयश दे दिया॥7 (ख)॥