सोमवार, 19 नवंबर 2012

मै अपनी झाँसी नहीं दूँगी: जन्मदिवस पर हिंदुस्थान की वीरांगना को नमन


विनायक दामोदर सावरकर लिखते है -संसार के सामने दृढ़तापूर्वक कहा गया नहींशब्द बहुत कम आया है | भारत के उदारमना लोगो के मुह से अब तक यही एक शब्द सुनाई देता आया है मै दूँगाकिन्तु लक्ष्मीबाई ने यह विलक्षण जयघोष किया – ‘ मै अपनी झाँसी नहीं दूँगी ‘ | काश यह आवाज भारत के हर मुँह से गूँजी होती
इतिहास के पन्नो मे अमिट एवं हिंदुस्तान की स्वतन्त्रता संग्राम की वीरांगना रानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवम्बर 1835 को काशी मे हुआ था। इनके बचपन का नाम मनुबाई था मनुबाई े पिता का नाम मोरोपंत तांबे एवं माता का नाम भगीरथी बाई था। इनके पिता महाराष्ट्र मे बाजीराव पेशवा के यहाँ कार्यरत थे सान 1818 मे जब अंग्रेज़ो ने पेशवा पदवी खत्म  की तो  मोरोपंत तांबे  पेशवा के भाई के साथ बनारस आ गए जबकि पेशवा बिठूर चले गए। पेशवा के भाई की मृत्यु के बाद मोरोपंत भी बिठुर आ गए। चार वर्ष की ही अल्पायु मे मनुबाई की माता का देहांत हो गया॥ बाजीराव पेशवा की कोई संतान नहीं थी अतः उन्होने नाना घोडूपंत नाम के बालक को गोंद ले लिया यही बालक नाना के नाम से प्रसिद्ध हुआ॥ मनुबाई के बचपन के मित्र नाना थे और इनके पसंद के खेल तलवारबाजी बंदूक चलाना घुड़सवारी कुश्ती। मनुबई बेहद हठी और चंचल बालिका थी एवं इनके शौक बालको एवं योद्धाओं जैसे  थे । इनके सुंदर चेहरे के कारण इन्हे लोग प्यार से छबीली बुलाते थे मगर स्वयं मनुबाई को ये नाम पसंद नहीं था।
झाँसी के प्रकांड विद्वान तात्या दीक्षित एक बार बीठूर  बाजीराव पेशवा से मिलने आए ।मनुबाई को देख झाँसी नरेश एवं मनुबाई के रिश्ते के लिए दीक्षित ने मध्यस्थता की । जब रिश्ता तय हो रहा था उस समय मनुबाई अन्य बालिकाओं से इतर अक्सर इस बात की चर्चा करती रहती की झाँसी की सेना कितनी बड़ी है क्या हम  इस सेना की सहायता से अंग्रेज़ो से अपना राजी वापस ले सकते हैं॥ उनकी इस बात को बाजीराव और उनके पिता मोरोपांत बाल विनोद समझकर भुला देते थे । विवाह की शर्तों पर चर्चा के लिए झासी के राजा एवं बिठूर के पुरोहितो की वार्ता मे निर्णय ये हुआ की विवाह का पूरा खर्च झासी नरेश उठाएंगे और मोरोपांत स्थायी रूप से झसी मे बस जाएंगे तथा उनकी गिनती झाँसी के सरदारो मे होगी।
विवाह के बाद मनुबाई झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई के रूप मे प्रसिद्ध हुई । गंगाधर एक निर्दयी शासक के रूप मे आलोकप्रिय होते जा रहे थे उसी समय अङ्ग्रेज़ी कंपनी ने झांसी राज्य को एक संधि करने के लिए विवश किया जिसके अनुसार अङ्ग्रेज़ी सेना झाँसी के खर्चे पर झाँसी मे रहेगी तथा एक क्षेत्र कंपनी के अधिकार मे दे दिया जाएगा । इस समझौते से झाँसी का नुकसान हुआ मगर  गंगाधर को अब शासन के अधिकार को अंग्रेज़ो ने मान्यता दे दी ।
लक्ष्मी बाई को ये पसंद नहीं आया मगर राजी का अधिकार गंगाधर के पास था । साल बाद रानी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई मगर कम के क्रूर पंजो के कारण पुत्र की जल्द मृत्यु हो गयी । राजा का स्वास्थ्य भी गिर रहा था,सन1853 मे रानी ने एक दत्तक पुत्र दामोदर को गोद लेने का प्रयास किया जिससे राजा का स्वास्थ्य सुधरे और झाँसी को वारिस मिले ॥राजा ने कंपनी के पुलिस कप्तान मार्टिन को इस नए परिवर्तन और राजी के उत्तराधिकारी के बारे मे सूचित किया । ठीक उसी समय राजा की तबीयत बिगड़ी और उनका स्वर्गवास हो गया । राजा के स्वर्गवास के समय अंग्रेज़ो ने झाँसी के अतिरिक्त लगभग सारे हिस्सो पर अधिकार कर लिया था अब उनकी कुटिल नजर झाँसी पर थी ॥ नाना ,तात्या टोपे और लक्ष्मीबाई ने आते हुए खतरो को भाप कर मृतप्राय हो चुके राजाओं को संगठित करना शुरू किया ।
इसी समय अंग्रेज़ो से नबाब अली बहादुर और खुदाबक्स  नाम के दो सरदारो को अंग्रेज़ो ने अपनी ओर मिला लिया एवं रानी के दत्तक पुत्र दामोदर राव को मान्यता न देते हुये झाँसी पर अधिकार का दावा  कर दिया॥ इसी समय भारत मे स्वतन्त्रता संग्राम  मंगल पांडे के विद्रोह से शुरू हो गया ।14 मार्च, 1857 से आठ दिन तक तोपें किले से आग उगलती रहीं।  अंग्रेज सेनापति ह्यूरोज लक्ष्मीबाई की किलेबंदी देखकर दंग रह गया। रानी रणचंडी का साक्षात रूप रखे पीठ पर दत्तक पुत्र दामोदर राव को बांधे भयंकर युद्ध करती रहीं. झांसी की मुट्ठी भर सेना ने रानी को सलाह दी कि वह कालपी की ओर चली जाएं। झलकारी बाई और मुंदर सखियों ने भी रणभूमि में अपना खूब कौशल दिखाया. अपने विश्वसनीय चार-पांच घुड़सवारों को लेकर रानी कालपी की ओर बढ़ीं. अंग्रेज सैनिक रानी का पीछा करते रहे।  कैप्टन वाकर ने उनका पीछा किया और उन्हें घायल कर दिया। 
22 मई, 1857 को क्रांतिकारियों को कालपी छोड़कर ग्वालियर जाना पड़ा।  17 जून को फिर युद्ध हुआ. रानी के भयंकर प्रहारों से अंग्रेजों को पीछे हटना पड़ा।  महारानी की विजय हुई, लेकिन 18 जून को ह्यूरोज स्वयं युद्धभूमि में आ डटा।  लक्ष्मीबाई ने दामोदर राव को रामचंद्र देशमुख को सौंप दिया।  सोनरेखा नाले को रानी का घोड़ा पार नहीं कर सका।  वहीं एक सैनिक ने पीछे से रानी पर तलवार से ऐसा जोरदार प्रहार किया कि उनके सिर का दाहिना भाग कट गया और आंख बाहर निकल आई। घायल होते हुए भी उन्होंने उस अंग्रेज सैनिक का काम तमाम कर दिया। रानी के विश्वस्त गुलमुहम्मद और रघुनाथ सिंह रानी को उस हालत मे  बाबा गंगादास की कुटी पर ले गए । वहाँ रामचन्द्र ने रानी को अपनी वर्दी पर लिटाया एवं साफे से उनके सिर का घाव बांध दिया॥ बाबा गंगादास उन्हे देखते ही पहचान गए और बोले "सीता और सावित्री के देश की कन्याएँ हैं ये॥"
बाबा ने रानी के मुह पर गंगाजल डाला तब रानी होश मे आई ॥ एक बार हर हर महादेव का उच्चारण किया और बेहोश हो गयी। दूसरी बार गंगाजल डालने पर रानी ने "ॐ वसुदेवाय नमः" का उच्चारण किया और चिरनिद्रा मे विलीन हो गयी।  ये समय सूर्यास्त का था और "झाँसी का सूर्य  भी अस्त हो चुका था " लकड़िया इतनी नहीं थी रानी और उनकी सहेली मुंदर का दाह संस्कार हो सके अतः बाबा ने अपनी कुटिया उधेड़ लाने को कहा और दोनों शवों का दाह संस्कार किया गया ॥
रानी के सहयोगी रामचन्द्र देशमुख जी उनके पुत्र दामोदर राव  को लेकर दक्षिण की ओर चले गए । जब उन्होने पुनः लौटकर युद्ध किया तो वो भी मारे गए । महारानी की अस्थियाँ पर्णकुटी के प्रांगड़ मे दफना दी गयी .
जब हिंदुस्तान का इस्लामिक स्तम्भ दिल्ली का बादशाह  शेरो शायरी  मे व्यस्त था  उसी समय सुदूर झाँसी में बैठी एक हिन्दू स्त्री सिंह गर्जना करती हुई यह एतिहासिक वाक्य कह रही थी– ” मै अपनी झाँसी नहीं दूगी अपने शब्दो पर कायम रहते हुए  झाँसी की रानी ने अभूतपूर्व वीरता का परिचय दिया और स्वाधीनता संग्राम के हवन कुंड मे अपना जीवन आहूत कर डाला ॥

हिंदुस्थान की इस महान हिन्दू वीरांगना को जन्मदिवस पर शत शत अभिनंदन ॥