मूर्ति पूजा साधक के
मन को एकाग्र करने का एक साधन है।चंचल मन को एकाग्र करने का एकमात्र उपाय है
मूर्तिपूजा ,शास्त्रो मे कहा गया है
“मनोधृतिधार्रणा स्यात ,समाधिब्रम्हाणि स्थितिः। अमूर्तों चेतिस्थरा न स्याततों मूर्ति विचिन्तयेत ॥
“मन की धृति को धारण कहते हैं । ब्रम्हा मे स्थित हो जाने का नाम समाधि है परंतु यदि बिना मूर्ति मन स्थिर न हो तो मूर्ति की आवश्यकता पड़ती है ।
ज्ञान की कोटि मे पहुचने के लिए साधक मन जब सुस्थिर न हो सके तो मूर्तिपूजा ही उपाय है जिसके द्वारा मन को वश मे किया जा सके। विज्ञान के अनुसार मनोवैज्ञानिक कहते हैं की भावना को उभरने के लिए मूर्ति (चित्र) की आवश्यकता पड़ती है। माना एक व्यक्ति के हाथ मे 3 स्त्रियॉं के चित्र हैं एक उसकी माता दूसरा उसकी बहन तीसरा उसकी पत्नी । वह व्यक्ति जो जो चित्र देखेगा वैसी वैसी भावना उसके मन मे उभरेगी। माँ को देखकर ममत्व वात्सल्य ,बहन को देखकर भाई का कर्तव्य स्नेह की भावना और पत्नी को देखकर प्रेम की भावना प्रगाढ़ होगी ॥ एकलव्य ने भी द्रोणाचार्य की मिट्टी की प्रतिमा बनाकर उसका पूजन किया और अर्जुन से अधिक निपुण हो गया ।
हिन्दू धर्म नहीं
बल्कि मुसलमान और ईसाई धर्म मे भी मूर्तिपूजा का प्रचलन है।
ईसाई लोग पवित्र क्रास इसामसीह और मरियम की मूर्तियों की पूजा करते हैं मुसलमान
भाई मक्का मे “संगे असबद” को चूमते हैं।
सिक्ख भाई गुरुग्रंथसहब की पूजा करते हैं॥
अतः निर्गुण निराकार
का ध्यान किया जाता है और सगुण साकार की प्रतिमा के माध्यम से उपासना करना धार्मिक
और वैज्ञानिक दृष्टि तर्कसंगत है ॥